महामारी भूकंप बाढ़ आँधीतूफ़ान आदि घटनाओं को ठीक ठीक समझने के लिए जनता के पास उसका अपना पूरा पारंपरिकविज्ञानतंत्र होता है अनुभव होते हैं जो उसे पूर्वजों से पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा पूर्वक प्राप्त होते रहे हैं | जब आधुनिक विज्ञान का उदय भी नहीं हुआ था तब भी जनता उस परंपरा विज्ञान के आधार पर अबाधरूप से अपना जीवन जीती रही है |इसीलिए जब जब आधुनिक विज्ञानजनित अनुसंधान असफल होते हैं तब तब जनता अपने उसी परंपराविज्ञान के आधार पर जीवन जीना प्रारंभ कर दिया करती है | उसी के द्वारा वह अपने को स्वस्थ और सुरक्षित कर लिया करती है |
कोरोना महामारी के समय भी उसी पारंपरिक जीवन शैली अपनाकर ही ग्रामीणों ग़रीबों किसानों आदिबासियों आदि ने अपने को संक्रमित होने से बचाने में सफलता प्राप्त की है | यद्यपि उन लोगों में से भी कुछ लोग संक्रमित हुए कुछ की दुर्भाग्य पूर्ण मृत्यु भी हुई है किंतु यह संख्या उन लोगों की अपेक्षा बहुत कम थी जो साधनसंपन्न लोग आधुनिक विज्ञान के सहारे जीवन यापन कर रहे थे | यहाँ तक कि अत्यंत उन्नत चिकित्सकीय संसाधनों से संपन्न अमेरिका जैसे देश और भारत के दिल्ली मुंबई जैसे अत्याधुनिक चिकित्सकीय संसाधनों से संपन्न शहरों के साधन संपन्न निवासी लोग कोरोना महामारी से सबसे अधिक पीड़ित होते देखे गए हैं जबकि ऐसे साधन संपन्न लोगों ने कोरोना नियमों का अत्यंत सतर्कता पूर्वक पालन किया है |
दूसरी ओर दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों के उसी वातावरण की घनी एवं मलिन बस्तियों में रहने वाले गरीब लोग साधन संपन्न लोगों के यहाँ जा जा कर घरेलू काम काज करके अपनी आजीविका जुटाते रहे उनके घर के लिए बाजारों से खरीद खरीद कर आवश्यक सामान संपन्न लोगों के यहाँ वही गरीब लोग भयंकर कोरोना काल में भी पहुँचाते रहे फिर भी स्वस्थ बने रहे | बाजारों में सब्जी फल अखवार आदि आवश्यक सामान संपूर्ण कोरोना काल में दिन दिन भर बेंचते रहे |रेड़ियाँ लिए गली गली में घूमते रहे | उनमें बहुतों के छोटे छोटे बच्चे भोजन की तलाश में दिन दिन भर लाइनों में लगे रहते रहे | जहाँ जो कुछ जिस किसी ने जैसे भी हाथों से दिया वो उन्होंने वहाँ खाया घर ले गए तो घर वालों ने खाया इसके बाद भी वे संक्रमित होने से बचे रहे |
दिल्ली मुंबई सूरत जैसे महानगरों से मजदूरों का जब पलायन हुआ तब उन्हें रास्ते में जहाँ जो कुछ जिसने जैसे हाथों से दिया वो सब खाते पीते पैदल चले गए | इसी मध्य कुछ गर्भवती महिलाओं को रास्ते में भी प्रसव हुए | उस भयंकर कोरोना काल में भी उनमें से लगभग सभी माँ बच्चे स्वस्थ बचे रहे |
इतना ही नहीं अपितु दिल्ली मुंबई सूरत जैसे महानगरों के मंदिरों में रहने वाले पंडितों पुजारियों की संख्या लाखों में रहती है उन्होंने कोविड नियमों का पालन या तो किया नहीं है या बहुत कम किया है जिन्होंने किया भी है वे कोरोना से उतना नहीं डर रहे थे जितना कि सरकारी जुर्माने को डर रहे थे | मंदिरों के इन्हीं पुजारियों ने कोरोना काल में भी घरों में जा जा कर खूब निमंत्रण खाया है | महामारी से मरने वालों के यहाँ भी गरुड़ पाठ आदि कर्मकांड खूब किया है जमकर दान दक्षिणा लिया है इसके बाद भी वे संक्रमित होने से बचते हुए स्वस्थ बने रहे |
कुंभ जैसे मेले में साधू संतों समेत आम लोगों की इतनी भारी भीड़ इकट्ठी हुई जहाँ किसी प्रकार से कोरोना नियमों का पालन कर पाना संभव न था इसके बाद भी वे सभी स्वस्थ और सुरक्षित बने रहे | बिहार बंगाल आदि में चुनाव हुए चुनावी सभावों में भारी भीड़ें उमड़ती रहीं इसके बाद भी पारंपरिक जीवन शैली के आधार पर उन लोगों का बचाव होता रहा |
कुल मिलाकर परंपरा से प्राप्त ज्ञान विज्ञान के आधार पर आहार विहार रहन सहन आदि अपनाकर किसानों गरीबों ग्रामीणों मजदूरों आदि ने महात्माओं पंडितों पुजारियों ने महामारी जैसी भयंकर आपदा से अपनी एवं अपने परिवारों की रक्षा करने में सफलता पाई है | ऐसे लोगों के संक्रमित न होने में या संक्रमित होकर स्वस्थ होने में आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों कोई विशेष योगदान नहीं रहा है | इस बचाव के लिए जनता के अपने तर्कों और अनुभवों को भी तो सुना समझा जाना चाहिए | उनके अनुभवों को भी आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों में सम्मिलित किया जाना चाहिए |
वैसे भी जब आधुनिक विज्ञान का जन्म ही नहीं हुआ था तब भी तो महामारियाँ आती रही थीं !उस समय भी भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ जैसी घटनाएँ घटित होती रही थीं उस समय भी ऐसी घटनाओं के घटित होने से काफी पहले इनके विषय में पूर्वानुमान लगा लिए जाते थे उसके बाद घटनाओं के घटित होने से पहले ही उनसे बचाव के लिए किए जाने योग्य उपायों का पता लगा लिया जाता था | यहाँ तक कि महामारियाँ प्रारंभ होने से पहले ही संभावित महामारियों से बचाव के लिए औषधियाँ बनाकर रख ली जाती थीं |
परंपरागत विज्ञान की यह प्रमुख विशेषता रही है कि संकट आने से पहले ही उनसे बचाव के लिए उपाय खोज लिए जाते थे जिनसे महामारी जैसी आपदाओं के प्रारंभ होने से पहले ही उन्हें समाप्त करने के प्रयास प्रारंभ कर दिए जाते थे |
उदाहरण के तौर पर भूकंपों को ही लिया जाए तो भूकंप जैसी घटनाओं से काफी बड़ी संख्या में जनहानि होते देखी जाती थी | भूकंप अक्सर अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों के आस पास ही घटित होते देखे जाते थे किंतु अमावस्या और पूर्णिमा जैसी तिथियाँ कब कब आती हैं | प्राचीन वैज्ञानिकों के द्वारा इसका पूर्वानुमान लगाने की गणितागत विधियाँ खोजी गईं और उस गणित विज्ञान से अमावस्या और पूर्णिमा जैसी तिथियाँ कब कब आएँगी | इसके विषय में सफलता पूर्वक पूर्वानुमान लगा लिया जाने लगा | ऐसे दिनों में भूकंपों के आगमन की संभावना रहती थी इसलिए लोग इनमें धर्म कर्म करने के लिए गंगा स्नान के लिए घर से बाहर निकल जाया करते थे !एक दो दिन वहाँ बीत जाया करते थे समय निकल जाया करता था | कुछ समय बाद लोगों ने अनुभव किया कि सभी अमावस्या पूर्णिमा आदि में भूकंप जैसी हिंसक घटनाएँ नहीं घटित होती हैं | जिन अमावस्या पूर्णिमा आदि तिथियों में सूर्य चंद्र आदि ग्रहण घटित होते हैं उन्हीं के आस पास भूकंप जैसी घटनाएँ विशेष तौर पर घटित होते देखी जाती हैं | इसलिए प्राचीन वैज्ञानिकों के द्वारा सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में पूर्वानुमान लगाने की गणितागत विधियाँ खोजी गईं और उस गणित विज्ञान से सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में सफलता पूर्वक पूर्वानुमान लगा लिया जाने लगा | इनसे बचाव के लिए ग्रहण होने के दो एक दिन पहले से लोग प्रभाष आदि तीर्थ क्षेत्रों में या गंगा आदि नदियों के आस पास धर्म कर्म स्नान ध्यान आदि करने के लिए चले जाया करते थे | ग्रहण बीत जाने के बाद आते थे तब तक भूकंप आदि जो घटनाएँ घटित होनी होती थीं वे हो जाया करती थीं लोगों का जीवन बच जाया करता था | इसी प्रकार से महामारियाँ घटित होने से पहले उनसे बचाव के लिए सारे उपाय खोज लिए जाते थे और ऐसी घटनाओं को घटित होने से रोक लिया जाता था |
इसी प्रकार से प्राचीन काल में महामारीसमेत सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं के आने से पहले ही उनके विषय में पूर्वानुमान लगा लिया जाता था और उनसे बचाव के लिए यथा संभव उपाय खोज लिए जाया करते थे | वह विज्ञान यंत्र आधारित न होकर अपितु अनुभव आधारित होता था | प्राकृतिक घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने के लिए गणितीय पद्धति का उपयोग किया जाता था जिसके आधार पर सूर्य चंद्र ग्रहणों का पूर्वानुमान लगा लिया जाता था उसी आधार पर भूकंप वर्षा बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं का एवं महामारी जैसे प्राकृतिक रोगों का पूर्वानुमान लगा लिया जाता था |
BOOK
कोरोना जैसी कोई महामारी हो या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा अथवा सुनामी बाढ़ आँधी तूफ़ान चक्रवात आदि संकट एक बार आ जाने के बाद इनसे सुरक्षित बच पाना मनुष्यों के लिए बहुत कठिन होता है ,क्योंकि ऐसी घटनाएँ घटित होना जब एक बार प्रारंभ हो जाती हैं फिर तो वही होता है जो घटनाएँ स्वयं करती हैं उसके बाद इनके वेग को रोकना मनुष्यों के बश की बात तो होती नहीं है | ऐसी बड़ी प्राकृतिक घटनाओं का निर्माण जिन प्राकृतिक परिस्थितियों में हुआ होता है मनुष्यकृत प्रयासों की पहुँच वहाँ तक नहीं होती है इसलिए ऐसी घटनाओं को समझपाना सामान्य मनुष्यों के बश की बात ही नहीं होती है | ऐसी घटनाओं को ठीक ठीक समझे बिना उनसे बचाव की परिकल्पना ही कैसे की जा सकती है |
इसीलिए ऐसी प्राकृतिक घटनाओं के घटित होने के जिम्मेदार जो कारण वैज्ञानिकों के द्वारा बताए जा रहे होते हैं उन कारणों का उस प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं से कुछ लेना देना ही नहीं होता है वे तो आधार विहीन काल्पनिक कुछ तीर तुक्के मात्र होते हैं जिनके सही होने की संभावना प्रायः बहुत कम या फिर बिल्कुल नहीं होती है| उनमें से कुछ तीर तुक्के संयोगवश कभी कभी सही होते दिखते भी हैं किंतु उनका घटनाओं से कोई संबंध न होने के कारण उन काल्पनिक तीर तुक्कों को सच मानकर उनके आधार पर लगाए गए पूर्वानुमान आदि गलत निकल जाते हैं | ऐसी घटनाओं के घटित होने के लिए अज्ञानवश जिन कारणों को जिम्मेदार मान जाता है वे सच होते ही नहीं हैं ऐसी परिस्थिति में उनके आधार पर खोज कर एकत्रित की गई सारी जानकारियाँ अप्रमाणित निराधार एवं गलत होती हैं | इसीलिए उन अनुसंधानों से प्राप्त जानकारियों अनुभवों की जब आवश्यकता पड़ती है तब वे धोखा दे जाते हैं | ऐसे अनुसंधान किसी काम के नहीं होते | बाद में पता लगता है कि ऐसे निरर्थक वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर धन एवं समय दोनों की बर्बादी हुई है |
इसीलिए प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित अनुसंधानों के लिए असत्य प्रतिमान चुन लिए जाने के कारण गलत मॉडल बना कर उनके आधार पर किए जाने वाले वैज्ञानिक अनुसंधान इतने अक्षम होते हैं कि भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ आदि घटनाओं के विषय में आज तक ऐसी कोई प्रमाणित अनुभव नहीं जुटाए जा सके हैं जिनके आधार पर इन्हें समझने में कोई सुविधा हुई हो या प्रमाणिकता ही बढ़ी हो जो ऐसे अनुसंधानों में सहायक सिद्ध हो सकें और उनके आधार पर भविष्य में लगाए जाने वाले अनुमान पूर्वानुमान आदि सही सिद्ध हो सकें | यही कारण है कि भूकंप आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ आदि घटनाओं के घटित होने से पहले वैज्ञानिक कोई जानकारी दे नहीं पाते हैं ऐसी घटनाओं के घटित होने के बाद वैज्ञानिकों की कोई भूमिका रह नहीं जाती है |
महामारी संबंधी अध्ययनों अनुसंधानों के लिए दशकों से जो आधार भूत मॉडलों प्रतिमानों आदि के जो पुलिंदे तैयार कर कर के इतने वर्षों से रखे गए थे | वे कितने सही कितने गलत थे इसका परीक्षण तो महामारी के समय ही किया जा सकता था | इसलिए महामारी आने पर जब उन अनुसंधानों से प्राप्त अनुभवों की आवश्यकता पड़ी तब पता लगा कि उनका सच्चाई से कोई संबंध ही नहीं था | उनके आधार पर वैज्ञानिकों के द्वारा बताई गई कोई भी बात सच नहीं निकली | वैज्ञानिक अनुसंधानों के असफल होने के कारण ही उनके द्वारा लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि इसीलिए बार बार गलत होते देखे जाते रहे |इसीलिए महामारी के विषय में अनुमान पूर्वानुमान कारण विस्तार अंतर्गम्यता मौसम से संबंध वायु प्रदूषण से संबंध तापमान से संबंध आदि जब जब जो जो कुछ बताया जाता रहा वो सब कुछ शतप्रतिशत गलत निकलता रहा | इसका कारण ऐसी जानकारियाँ जिन मॉडलों प्रतिमानों आदि के आधार पर जुटाई गई थीं वे आधार ही गलत थे तो इसलिए उन्हें आधार बनाकर जो भी अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए गए थे उनका सही होना संभव ही नहीं था |ऐसा वैज्ञानिक घालमेल प्रायः प्रत्येक प्राकृतिक घटना के विषय में देखा जाता है |
वायुप्रदूषण संबंधी अनुसंधानों के आधारभूत मॉडलों प्रतिमानों का उपयोग तो खूब होता है उनके आधार पर बड़े बड़े अनुसंधान किए जाने का दावा भी किया जाता है उसके विषय में प्रतिवर्ष बातें तो बहुत की जाती है |प्रत्येक वर्ष महीनों पहले से वायु प्रदूषण भारत की राजधानी दिल्ली और उसके आस पास के प्रदेशों में प्रतिवर्ष अक्टूबर नवंबर के महीनों में वायु प्रदूषण बढ़ जाता है उसके लिए सरकारें न जाने कितने प्रयास करती हैं वायु प्रदूषण बढे न इसके लिए न जाने कितने प्रयास करतीहैं कितनी कमेटियाँ गठित करती है | कुल मिलाकर सरकारें बहुत कुछ किया करती हैं किंतु उन अनुसंधानों के आधारभूत मॉडलों प्रतिमानों के परिणाम तो कुछ नहीं निकलते हैं ये चिंतन करने वाली बात है | ऐसी परिस्थिति में उन अनुसंधानों से लाभ ही क्या है और उनके करने का उद्देश्य ही क्या है जो संकट काल में सहारा न बन सकें |
महामारियाँ और आधुनिक विज्ञान
महामारी समेत समस्त प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान लगाने के लिए अभी तक कोई ऐसी प्रमाणित विधा विकसित नहीं की जा सकी है जिसके द्वारा प्रकृति को समझना संभव हो | यही कारण है कि महामारी और मौसम जैसी जिन प्राकृतिक घटनाओं के विषय में आगे से आगे पूर्वानुमान लगाने एवं उनसे बचाव के लिए पहले से उपाय खोज कर रखने की आवश्यकता होती है ताकि ऐसी आपदाओं के समीप आ जाने के बाद केवल दिखावा करने के लिए निरर्थक भागदौड़ न करनी पड़े |जिनसे कोई सार्थक परिणाम निकलने की संभावना ही न हो | यही कारण है कि जो वैज्ञानिक अनुसंधान जिन प्राकृतिक आपदाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए हमेंशा से चलाए जा रहे होते हैं वही अनुसंधान उसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा के आने पर किसी काम नहीं आ पाते हैं | महामारी जैसी इतनी बड़ी प्राकृतिक आपदा घटित हुई जितने लोगों को उससे संक्रमित होना था हुए |जिनकी मृत्यु होनी थी हुई ,किंतु महामारी के विषय में हमेंशा से चलाए जा रहे वैज्ञानिक अनुसंधान किसी काम नहीं आ सके महामारी के विषय में कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका | महारोग की उत्पत्ति का कारण नहीं खोजा जा सका और महारोग को समझे बिना इसकी चिकित्सा खोज पाना संभव था ही नहीं | मौसम के प्रभाव से महामारी पैदा हुई है यदि ऐसा मान भी लिया जाए तो जिस विज्ञान के द्वारा मौसम को ही समझना संभव नहीं हो पाया उस आधार पर महामारियों को समझने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है |
कुल मिलाकर केवल महामारी ही नहीं अपितु मौसम संबंधी सभी प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं के विषय में भी वैज्ञानिक अनुसंधानों की ऐसी ही ढुलमुल नीति देखने को मिलती है |अप्रत्यक्ष रूप से उनके हानिकर पारिणाम उस समाज को भुगतने पड़ते हैं जो समाज सरकारों के द्वारा ऐसे अनुसंधानकार्यों के लिए व्यय किए जाने वाली संपूर्ण धनराशि अपने खून पसीने की कमाई से टैक्स रूप में सरकारों को देता है ,आखिर उस समाज को ऐसे अनुसंधानों से इसके बदले में क्या मिलता है यह सोचने वाली बात है | महामारी आने पर उससे संबंधित वैज्ञानिक कह देते हैं कि इस विषय में हमें कुछ पता नहीं था और भूकंप आने पर भूकंप वैज्ञानिक कह देते हैं कि इस विषय में हमें कुछ पता नहीं था | आँधी तूफ़ान वर्षा बाढ़ आदि से संबंधित आपदाएँ घटित होने पर उससे संबंधित वैज्ञानिकों की ऐसी ढुलमुल भविष्यवाणियाँ होती हैं कि वे दोनों प्रकार की घटनाएँ घटित होने पर फिट कर दी जाती हैं मैंने ऐसा नहीं वैसा कहा था जो भविष्यवाणियाँ सच्चाई से बहुत दूर निकल जाती हैं घटनाओं के साथ उनका बिलकुल तालमेल बैठता ही नहीं है उनके घटित होने का कारण मजबूरी में जलवायु परिवर्तन को बता दिया जाता है | जलवायु परिवर्तन कहने का अर्थ यह लोग लगा लेते हैं हमारे वैज्ञानिक ऐसी घटनाओं को समझ पाने में अक्षम हैं| भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना हुए लगभग डेढ़ सौ वर्ष बीत रहे हैं मानसून आने जाने की सही तारीखें अभी तक नहीं खोजी जा सकी हैं | वायु प्रदूषण बढ़ने का वास्तविक कारण खोजा जाना अभी तक बाकी है | भूकंप आने के लिए जिम्मेदार प्राकृतिक परिस्थितियों को खोजा जाना अभी तक बाकी है बाकि मौसम संबंधी अनुसंधानों से समाज स्वयं परिचित है महामारी संबंधी वैज्ञानिक अनुसंधानों से जनता को कितनी मदद मिल सकी है इसका अनुभव जनता से अधिक किसी और दूसरे को क्या हो सकता है | ये हमारे वैज्ञानिक अनुसंधानों की अभी तक की उपलब्धि है |
प्राचीन काल के गणितप्रक्रिया से किए जाने वाले अनुसंधानों के द्वारा तो भूकंप महामारी जैसी हिंसक प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा हो भी जाती थी किंतु वर्तमान समय में आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर जो दिखावा किया जाता है वह वास्तव में कई बार आत्मघाती सिद्ध होता है |अनेकों प्राकृतिक परिस्थितियाँ इस प्रकार की घटित होते जब जाती हैं जब वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर जो कुछ बताया जा रहा होता है वही नुक्सान का प्रमुख कारण होता है |
उदाहरण के तौर वर्षा एवं बाढ़ की घटनाओं को ही देखा जाए तो किसी क्षेत्र में जब वर्षा होना प्रारंभ हो जाता है उस समय मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा बताया जाता है कि तीन दिन तक बरसात होगी जनता उनकी बातों पर विश्वास करके तीन दिन बिताने हेतु भोजन आदि के लिए आवश्यक सामग्री जुटा लिया करती है उसके बाद वर्षा बंद हो ही जाएगी ऐसी आशा करती है किंतु तीन दिन बाद भी जब वर्षा बंद नहीं होती तब वैज्ञानिक कह देते हैं कि अभी तीन दिन तक बरसात आगे भी होती रहेगी | तब तक वहाँ के निवासियों का राशन समाप्त होने लगता है वर्षा का पानी भी इतना अधिक बढ़ चुका होता है कि बाहर निकलने लायक नहीं रह जाता | इस प्रकार से घरों की पहली मंजिल तक पानी भर जाता है लोग छत पर रहने चले जाते हैं किसी तरह तीन दिन और इस आशा में काट लेते हैं कि तीन दिन बाद तो बंद हो ही जाएगा | उसके बाद भी वर्षा के बंद न होने पर मौसम वैज्ञानिक दो दिन और वर्षा होने की भविष्यवाणियाँ कर दिया करते हैं | इस प्रकार से यह क्षेत्र भीषण बाढ़ का शिकार हो चुका होता है |बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में लगभग सभी जगह ऐसा ही होते देखा जाता है |
भूकंप जैसी घटनाओं के विषय में अक्सर सुना जाता है कि इनका पहला झटका ही सबसे अधिक तीव्र होता है इसलिए इससे होने वाला अधिकतम नुक्सान पहले झटके में ही हो जाया करता है उस समय जनता को सलाहें दी जा रही होती हैं कि घरों से बाहर निकलकर खुले मैदान में आ जाओ | उस समय पहले झटके से कमजोर हुए बिल्डिंगों के अंश गिर रहे होते हैं हड़बड़ी में भागने वाले लोग उनके शिकार हो जाया करते हैं | दूसरी बात जहाँ बहु मंजिली बिल्डिंगें होती हैं वहीँ भागने की आवश्यकता होती है किंतु ऐसे स्थानों में इतने बड़े मैदान कहाँ होते हैं जहाँ बिल्डिंगें गिरने पर बचाव संभव हो सके | दूसरी बात भूकंप जैसी घटनाएँ सेकेंडों में आती हैं तब इतना समय कहाँ मिल पाता है कि उस समय भगा जा सके | वह तो केवल दिखावा होता है |
यही स्थिति महामारी के समय में किए जाने वाले उपायों की होती है महामारी आने से काफी पहले ही महामारी का विषैलापन वातावरण में बढ़ने लग जाता है अपनी अपनी न्यूनाधिक प्रतिरोधक क्षमता के आधार पर लोग संक्रमित होते जाते हैं जिनकी प्रतिरोधक क्षमता बहुत कमजोर होती है वे तुरंत अर्थात पहली लहर में ही संक्रमित हो जाते हैं और कुछ लोगों की प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होने के कारण वे धीरे धीरे संक्रमित होते देखे जाते हैं इन्हें ही पहली दूसरी आदि लहरों के नाम से जाना जाता है| जिनकी प्रतिरोधक क्षति बहुत अच्छी होती है वे संक्रमित होकर भी अपना बचाव करने में सफल हो जाते हैं इसलिए उनके संक्रमित होने का पता ही नहीं चलता है | कुल मिलाकर महामारी की चपेट में संपूर्ण प्रकृति पहली लहर में ही आ जाती है मनुष्यों समेत सभी जीवजंतु महामारी से संक्रमित होते देखे जाते हैं |
ऐसी परिस्थिति में जिनकी इम्युनिटी वर्षों में कमजोर हुई होती है उसे सुधरने में भी वर्षों का समय लग ही जाता है | इसीलिए तुरंत में किए गए उपायों से कुछ बचाव भले हो जाता हो किंतु तत्कालीन उपायों को करके बहुत बचाव कर लेना संभव नहीं है | जो होना होता है वो तो हो ही चुका होता है | उस समय न तो वातावरण में व्याप्त महामारी के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है और न ही महामारी से संक्रमित शरीरों का ही तुरंत शोधन किया जा सकता है | यह जानते हुए भी महामारियों से बचाव के लिए किए जाने वाले तथाकथित उपायों को जनता पर थोपना शुरू कर दिया जाता है भले ही उन उपायों का महामारी से कोई लेना देना ही न हो ,क्योंकि ऐसे कल्पित उपाय किसी वैज्ञानिक अनुसंधान की उपज नहीं होते हैं |
इसीलिए वैज्ञानिक
अनुसंधान कर्ताओं की जो बातें बिचार आदि परंपरा विज्ञान से प्राप्त जनता
के अपने तर्कों और अनुभवों पर खरे नहीं उतरते तो जनता उसे नहीं मानना
चाहती है सरकारें उसे मानने के लिए जनता को बाध्य करती हैं अन्यथा जुर्माना
लगाती हैं | जनता एक ओर तो महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रही होती
है दूसरी ओर सरकारें उन पर जुर्माना लगाकर उनसे पैसे वसूल रही होती हैं
|जनता को भी तो यह जानने का अधिकार है कि कोरोना महामारी जैसे इतने
बड़े संकट काल में वैज्ञानिक अनुसंधानों का योगदान क्या रहा है |उससे जनता
के महामारी जनित संकटों को कितना कम किया जा सका है जबकि ऐसे समय पर जनता
को ऐसे अनुसंधानों से प्राप्त अनुभवों की आवश्यकता सबसे अधिक थी |
राजनेताओं के छल छद्म का प्रभाव उस देश के अधिकारी कर्मचारियों पर पड़ने लगता है सत्तासीन भ्रष्टाचारी नेताओं की आर्थिक हवस पूरी करने के लिए जनता की सेवा का संकल्प लेकर पारिश्रमिक लेने वाले अधिकारी कर्मचारी ही अपराधियों जैसा आचरण करते हुए निर्ममता पूर्वक जनता को लूटने लग जाते हैं |
जनता का शोषण करने के लिए उसके साथ क्रूरता पूर्ण व्यवहार करने लग जाते हैं | उनकी घूस प्रियता समाज में अपराधी कारण के बीच बोने लग जाती है |
कर्मचारियों
और न ही कर्मचारी वह अपनी ही जनता के साथ छल छद्म करके स्वार्थ में अंधा होकर अपनी ही जाता है
होकर भ्रष्टाचार पूर्ण का शासन तंत्र जब भष्ट होने लगता है
जनता जब सदाचरण हीन अनुशासन विहीन जीवन जीने लगती है उसकी दिनचर्या बिगड़ने लगती है
लेते ही कोई सेवक सेवाधर्म से बंचित होकर दास (नौकर)बन जाता है | कुछ लोग तो जनता के खून पसीने की कठोर कमाई से पारिश्रमिक भी लेते हैं उसके बदले में या तो कार्य नहीं करते या फिर घूस लेकर सरकारी सेवाऍं दिया करते हैं जबकि यह उनका अपना कर्तव्य बनता है कि वे जनता के कार्य ईमानदारी पूर्वक सेवा भावना से करें |यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनके द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार को रोकने की जिम्मेदारी सरकारों की बनती है उसका सफलता पूर्वक निर्वाह सरकारें स्वयं करें | जनता को भ्रष्टाचार मुक्त सेवाएँ उपलब्ध करवाना सरकारें जिस दिन प्रारंभ कर देंगीतो सरकारों के प्रति जनता का भी विश्वास बढ़ेगा और इससे सभी समस्याएँ स्वयं समाप्त होने लगेंगी |सरकारों की जवाबदेही जनता के प्रति होनी ही चाहिए |
जनता के द्वारा कररूप में दिया गया धन जिन कार्यों में जिस उद्देश्य से लगाया जाता है उस उद्देश्य की पूर्ति में कितने प्रतिशत सफलता मिली है |वैज्ञानिक अनुसंधानों की सफलता असफलता का परीक्षण भी प्राकृतिक घटनाओं के साथ तालमेल बैठकर किया जाना चाहिए |
कोई भी शासक टैक्स देने के लिए जितनी निर्ममता पूर्वक जनता को बाध्यकर्ता है उतनी ही जिम्मेदारी का निर्वाह उसे टैक्स से प्राप्तधन को खर्च करने में भी करना चाहिए |जिससे कोई भी ईमानदार सरकार जनता के सामने प्रतिज्ञा पूर्वक कहने का साहस कर सके कि आपके टैक्सरूप में दिए गए एक एक पैसे का उपयोग आपके अपने लिए ,समाज के लिए और आपके अपने देश के लिए किया गया है | जिससे कि जीवन समाज एवं देश के सभी क्षेत्रों में देशवासियों की कठिनाइयों को कम करके जनता को अधिक से अधिक सुख सुविधापूर्ण जीवन दिया जा सके | इससे सरकारों पर जनता का विश्वास सुरक्षित बना रहेगा | शासकों के इशारों पर जनता चलने लगेगी | सरकारें ऐसे उपाय यदि जनता की भलाई के लिए करना चाहती हैं तो अपनी भलाई तो जनता भी चाहती है फिर जनता को उसकी समझ में आने लायक तर्कों प्रमाणों के आधार पर क्यों नहीं समझाया जाता है कि सच क्या है और उसके लिए जनता को क्या करना चाहिए | ऐसे अनुशासन को जनता स्वयं स्वीकार कर लेगी और उसका पालन प्रसन्नता पूर्वक करेगी उसके लिए सरकारों को दंड विधान क्यों करना पड़ेगा |
महामारी भूकंप बाढ़ आँधीतूफ़ान आदि आपदाओं से अकेली जूझती जनता को ऐसी
आपदाओं के विषय में हमेंशा अनुसंधान करते रहने वाले अपने प्रिय
वैज्ञानिकों की बहुत याद आती है | उनकी सैलरी आदि सुख सुविधाओं एवं उनके
द्वारा किए जाने वाले अनुसंधानकार्यों पर खर्च किए जाने वाला वह धन भी याद
आता है जो जनता की अपनी खून पसीने की कमाई अंश होता है जिसे टैक्स रूप में
जनता के द्वारा सरकारों को दिया गया होता है | जनता का स्वभाव है कि वह
अपने पैसे बहुत सोच बिचार कर खर्च किया करती है और खर्च किए गए धन के बिषय
में भी बहुत सोच बिचार किया करती है | जीवन के लिए जरूरी वस्तुओं को खरीदने
हेतु दो दो पैसे बचाने के लिए न जाने कितनी बाजारें और कितनी दुकानें बदल
बदल कर कितना मोल तोल करके खरीददारी किया करती है | कहावत भी है कि
जिसका जहाँ धन लगता है उसका वहाँ मन जरूर लगा रहता है | वैसे भी जनता के
पास इतना खुला धन कहाँ होता है कि टैक्स में दिए गए धन को वह भूल जाए
!इसलिए अनुसंधान कार्यों पर खर्च होने वाले धन के बदले में भी जनता कुछ तो
सहयोग चाहती ही है |
प्राकृतिक आपदाएँ दो प्रकार से घटित हुआ करती हैं एक वे जो आदि काल से सामयिक विधान में सम्मिलित होने के कारण सुनिश्चित होती हैं इसलिए उन्हें अपने समय पर घटित होना ही होता है | ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के विषय में समयविज्ञान के द्वारा पूर्वानुमान लगा लिया जाता है |
दूसरी वे जो आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी आदि पाँचों तत्वों में या इनमें से किसी एक तत्व में विकार आने के कारण उस तत्व से संबंधित जो प्राकृतिक आपदाएँ घटित होती हैं | उन आपदाओं के कुछ पहले और कुछ बाद में उनकी कुछ अनुषांगिक घटनाएँ भी घटित होती हैं |जो उस मुख्य घटना के काफी समय पहले से घटित होनी प्रारंभ हो जाती हैं |जिन्हें देखकर उन बड़ी प्राकृतिक आपदाओं के विषय में संभावित पूर्वानुमान लगा लिया जाता है |
आपदाएँ भी दो प्रकार की होती हैं एक भूकंप आंधी तूफ़ान आदि प्राकृतिक
घटनाएँ होती हैं तो दूसरी जीवन से संबंधित होती हैं | जीवन से संबंधित
महामारी आदि आपदाएँ भी दो प्रकार की होती हैं एक प्राकृतिक और दूसरी
मनुष्यकृत | प्राकृतिक महामारियाँ समयचक्र के साथ घटित होनी प्रारंभ होती
हैं और समयचक्र के साथ ही समाप्त हो जाती हैं | मनुष्यकृत आपदाएँ
केमिकलवार या परमाणुविस्फोट आदि मनुष्यकृत कर्मों से पैदा होती हैं और जैसे
ही उस प्रकार के कर्म करने बंद कर दिए जाते हैं वैसे ही ऐसी आपदाएँ समाप्त
होनी प्रारंभ हो जाती हैं |
जीवन से संबंधित आपदाएँ भी दो प्रकार की होती हैं एक तो सामूहिक और दूसरी व्यक्तिगत होती हैं सामूहिक एक प्रकार की सामूहिक युद्ध ,उन्माद,दंगा,आतंकीउपद्रव तथा रोग महारोग आदि समस्याएँ संपूर्ण देश प्रदेश समाज समाज आदि को एक साथ पीड़ित करने लगती हैं जिससे एक साथ संपूर्ण समाज ही पीड़ाग्रस्त हो जाता है |दूसरी व्यक्तिगत जीवन में पारिवारिक,वैवाहिक, व्यापारिक, व्यवहारिक, संबंधजनित,पद-प्रतिष्ठा शिक्षा स्वास्थ्य संपत्ति आजीविका तथा वाद विवाद आदि से संबंधित होती हैं |
जीवन से संबंधित ऐसी आपदाएँ भी दो प्रकार की होती हैं एक तो प्राकृतिक होती हैं दूसरी मनुष्यकृत |इनमें से जो समयजनित अर्थात प्राकृतिक होती हैं उन्हें तो घटित होना ही होता है | ऐसी आपदाओं के विषय में समयविज्ञान के द्वारा पूर्वानुमान लगाकर प्रयासपूर्वक इनके दुष्प्रभाव को कुछ कम किया जा सकता है |दूसरी जो मनुष्यकृत आचार बिचार रहन सहन खान पान संस्कारों सदाचरणों आदि में विकृति आने के कारण पैदा होती हैं | इसलिए उनसे बचाव करने के लिए अपने क्रिया कलापों में सुधार करते हुए उस प्रकार की घटनाओं से बचा जा सकता है | ऐसी परिस्थिति में प्राकृतिक आपदाएँ हों या मनुष्यकृत !दोनों प्रकार की ही आपदाएँ घटित होने से पहले उनसे संबंधित कुछ प्राकृतिक या जीवन से संबंधित घटनाएँ कुछ दिन महीने वर्ष आदि पहले से ही घटित होनी प्रारंभ हो जाती हैं | उनका सबसे पहले समय विज्ञान की दृष्टि से परीक्षण करना होता है कि वे समयजनित हैं या मनुष्यकृत | यदि वे समय जनित होती हैं तब तो संबंधित गणित के द्वारा संपूर्ण रूप से पूर्वानुमान लगाना आसान हो जाता है | घटनाएँ समय से संबंधित न होकर अपितु मनुष्यकृत कार्यों से संबंधित होती हैं उन घटनाओं से संबंधित लक्षण प्रकृति और जीवन में पहले से प्रकट होने प्रारंभ हो जाते हैं | उन लक्षणों का मिलान करते हुए प्रकृति और जीवन से संबंधित ऐसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगा लिया जाता है |
किसी व्यक्ति के रोग ग्रस्त होने पर जब वो किसी कुशल चिकित्सक के पास चिकित्सा के लिए जाता है तो वह चिकित्सक उस व्यक्ति के रोगी होने के बहुत पहले से लक्षणों का मिलान करना शुरू करता है उसे रोगी होने से कितने दिन महीने वर्ष आदि पहले से किस किस प्रकार की शारीरिक पीड़ाओं का सामना करना पड़ता रहा है | यह जान लेने के बाद चिकित्सक यह जानने का प्रयास करता है रोगी होने में प्रकृति का दोष कितना है और वह स्वयं उसकी अपने आचार बिचार रहन सहन खान पान संस्कारों सदाचरणों आदि में क्रमशः आई विकृति उसके रोगी होने में कितनी जिम्मेदार है | यह जान लेने के बाद इस रोग को और अधिक न बढ़ने देने के लिए चिकित्सक उस प्रकार के पथ्य पालन के लिए प्रेरित करता है तथा उस समय तक उसके शरीर में जो क्षति हो चुकी होती है उसकी भरपाई के लिए औषधीय प्रयोग करके उसे स्वस्थ करने के लिए प्रयत्न करता है |ऐसी चिकित्सा से केवल उन्हीं रोगों से मुक्ति मिलने की संभावना होती है जो मनुष्यकृत होते हैं | जो प्राकृतिक होते हैं उनसे मुक्ति दिलाना कठिन होता है इसलिए उसप्रकार के रोगों से वर्षा में छतरी लेकर अपना कुछ बचाव कर लेने की तरह ही प्रयास पूर्वक कुछ राहत पा ली जाती है |
कुल मिलाकर शारीरिक चिकित्सा की तरह ही महामारी समेत सभीप्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए सबसे पहले लक्षणों के आधार पर उनकी पहचान करनी होती है कि वे प्राकृतिक हैं या मनुष्यकृत !ऐसी घटनाओं का प्रारंभ कब होगा, सर्वोच्च स्थिति कब होगी एवं समाप्ति कब होगी | इनकी व्याप्ति कितनी है इनका प्रसार माध्यम क्या है इनका विस्तार कितना है इनकी अंतर्गम्यता कितनी है | इन पर तापमान एवं वायुप्रदूषण आदि बढ़ने घटने का क्या प्रभाव कितना किस प्रकार का पड़ता है |
इसप्रकार महामारी समेत भूकंप बाढ़ सुनामी आँधीतूफ़ान बज्रपात आदि समस्त
प्राकृतिक आपदाओं एवं जीवन संबंधी समस्याओं की वास्तविक प्रकृति को समझे
बिना उससे संबंधित सभीप्रकार के अनुसंधान उद्देश्य विहीन एवं निरर्थक होते
हैं |
इसके अतिरिक्त प्राकृतिक रूप से या मनुष्यकृत कर्मों के प्रभाव से जब प्रकृति में परिवर्तन आने लगते हैं और प्राकृतिक ऋतुक्रम बिगड़ने लगता है या ऋतु प्रभाव में असंतुलन होने लगता है तब सर्दी गर्मी वर्षा आदि के न्यूनाधिक प्रभाव का परिणाम प्रकृति से लेकर जीवन तक सभी पर होते देखा जाता है |यह क्रम जिस अनुपात में बिगड़ता है प्रकृति से लेकर जीवन तक सब कुछ उसी अनुपात में बिगड़ता चला जाता है | यह असंतुलन जब बहुत अधिक बढ़ने लग जाता है अर्थात वर्षा ऋतु में जब बिल्कुल सूखा पड़ने लगता है या भीषणबाढ़ जैसी घटनाएँ घटित होने लग जाती हैं तब यही असंतुलन प्राकृतिक वातावरण में विकार पैदा करता है |इससे जल-वायु तथा खान-पान की सभी वस्तुओं के साथ साथ वृक्षों बनस्पतियों में विकार आने लग जाते हैं जिससे प्राकृतिक वातावरण बिषैला होता चला जाता है | समस्त प्राकृतिक वातावरण में इस प्रकार के विकार आ जाने के कारण उसका प्रभाव प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता पर भी क्रमशः पड़ने लगता है जिससे प्राणी रोगी होते चले जाते हैं |
ऐसी परिस्थिति में एक जैसे प्राकृतिक वातावरण का सेवन करने वाले सभी प्राणियों में विभिन्नमाध्यमों से विषाणुओं का प्रवेश लगभग एक सामान हो रहा होता है इसलिए रोग भी एक समय में एक जैसे होते देखे जा रहे होते हैं जिससे महामारी जनित रोगों के संचारी होने का भ्रम होना स्वाभाविक ही है | संचारी न होते हुए भी ऐसे रोगों में संचारी होने जैसा भ्रम अवश्य होता है किंतु इन्हें संचारी इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि महामारी पैदा करने वाले बिषाणु कुछ व्यक्तियों में न होकर अपितु संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण में विद्यमान होते हैं | दूसरी कठिनाई यह भी है कि महामारी को यदि संक्रमण जनित ही माना जाए तो सबसे पहला संक्रमित व्यक्ति किसके संपर्क में आने से संक्रमित हुआ होगा |जिन कारणों से वह एक व्यक्ति संक्रमित हो सकता है उसी प्रकार की परिस्थितियों में वैसे ही प्राकृतिक वातावरण में विद्यमान दूसरे लोग उसी प्रकार से संक्रमित क्यों नहीं हो सकते हैं | उनके संक्रमित होने का कारण किसी रोगी के संपर्क में आने को ही नहीं माना जा सकता है |
कुल मिलाकर प्रतिरोधक क्षमता जिसमें जिस प्रकार की होती है प्राकृतिक वातावरण में विद्यमान बिषाणुओं से वो उसी अनुपात में प्रभावित होता है किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि संक्रमित होकर जो रोगी नहीं होता है वह संक्रमित ही नहीं है विषाणुओं का प्रवेश तो उसमें भी हो चुका होता है उसके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता उसकी सुरक्षा कर रही होती है | प्रतिरोधक क्षमता को यदि छतरी मान लिया जाए तो वर्षा होते समय जिसकी जैसी छतरी उसका वैसा बचाव हो जाता है जो बहुत कम भीगता है या भीगने से बिल्कुल बच जाता है वह अपनी सुरक्षा करने में सफल हो गैया जबकि ऐसा नहीं कि वर्षा ने उस पर प्रभाव ही नहीं डाला है |
इसीप्रकार दूर दूर बने कुछ घरों में यदि ज्वलनशील गैस का रिसाव हो जाए उनमें से बहुत कम घर ऐसे हों जिनमें अग्नि का संयोग प्राप्त हो जाए तो उन कुछ घरों में आग लग जाएगी जबकि बाकी घरों का बचाव हो जाएगा इसका अर्थ यह कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि बाक़ी घरों में ज्वलनशील गैस की उपस्थिति नहीं थी | इसी प्रकार से महामारी के बिषाणु तो एक प्रकार के वातावरण में रहने वाले प्रायः सभी प्राणियों में विद्यमान होते हैं किंतु प्रभाव दिखाई उन्हीं में देता है जिनमें प्रतिरोधक क्षमता की कमी होती है |
जिस प्रकार से वातावरण में विद्यमान ज्वलनशील गैस एवं अग्नि का संयोग से आग
लगती है जिन घरों में ज्वलनशील वातावरण एवं अग्नि का संयोग नहीं मिल पाता
है उनमें आग नहीं लगती | इसी प्रकार से वातावरण में विद्यमान बिषाणुजनित
महामारियों के प्रभाव को तुरंत रोका नहीं जा सकता है उसके लिए दीर्घकालीन
प्रयत्न आवश्यक होते हैं | ऐसी परिस्थिति में जिस किसी भी प्रकार से शरीरों
को सुदृढ़ बनाना संभव हो महामारियों के आगमन की प्रतीक्षा किए बिना उस प्रकार के प्रयत्न सदैव करते हुए शरीरों को मजबूत बनाए रखना चाहिए ताकि महामारियाँ आने पर भी शरीरों पर उनका प्रभाव ही न पड़े |
-भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में मिलने वाले संदेश-
कई ऐसे बड़े रोग होते हैं जिनके विषय में कहा जाता है कि वे महीनों वर्षों से शरीरों में बन रहे होते हैं उसी समय से उनके कुछ न कुछ लक्षण शरीरों में प्रकट होने लगते हैं जिन लक्षणों को देखकर कुछ चिकित्सक लोग उस व्यक्ति के शरीर में भविष्य में होने वाले संभावित रोगों का पूर्वानुमान लगा लिया करते हैं |
इतनी बड़ी महामारी के आने से पहले कोई लक्षण ही नहीं समझ में आए जिन्हें देखकर महामारी का पूर्वानुमान लगाया जा सका होता |
ऐसी परिस्थिति में महामारी भूकंप सुनामी बाढ़ आँधी तूफ़ान आदि सभीप्रकार की हिंसक प्राकृतिक घटनाओं में वैज्ञानिक अनुसंधानों से यदि कोई लाभ नहीं मिल पाता है तो उनकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती है | आखिर अनुसंधान के नाम पर वे क्या किया करते हैं और उनके परिणाम क्या निकलते हैं ये जनता को पता ही नहीं लग पाता है |
वैज्ञानिक अनुसंधानों की असफलताओं की कीमत जनता को चुकानी पड़ती है क्योंकि ऐसे वैज्ञानिक विषयों पर सरकारें वैज्ञानिकों के आधीन होती हैं वैज्ञानिक जैसा कहते हैं सरकारें वही मानने लगती हैं |उपायों के नाम पर उन्हीं के द्वारा बताए जाने वाले कार्यों को सरकारें करने लगती हैं | वायु प्रदूषण बढ़ता है तो सरकारों को धुआँ और धूल फेंकने वाले कार्यों को रोकने में लगा दिया जाता है |डेंगू शुरू होता है तो सरकारों को मच्छर मारने में व्यस्त कर दिया जाता है |महामारी हुई तो सरकारों को लॉकडाउन लगाने ,मॉस्क लगवाने ,हाथ धुलवाने में व्यस्त कर दिया गया | सरकारें सच्चाई जानने का या तो प्रयास ही नहीं करती हैं या फिर उन्हें सच्चाई समझने का समय ही नहीं दिया जाता है प्राकृतिक आपदाओं के समय बचाव के लिए तथाकथित उपायों के करने करवाने में उन्हें इतना व्यस्त रखा जाता है |
ऐसे प्राकृतिक संकट काल में सरकारों को जनता से करवाने के लिए जो कार्य सौंपा जाता है वह कार्य इतना अधिक फँसाऊ होता है कि वह पूरा करना संभव ही नहीं होता है इसीलिए उन्हें ऐसे काम सौंपे जाते हैं जब तक उस प्रकार का संकट बना रहता है सरकारें उसी कार्य को करने या करवाने में तब तक लगी रहती हैं | उससे क्या कोई परिणाम निकल भी रहा है या नहीं इस बात का बिचार किए बिना उन तथाकथित काल्पनिक उपायों के नाम पर जनता के जीवन के लिए आवश्यक कार्यों में अकारण अवरोध उत्पन्न करती रहती हैं | ऐसे कठिन समय में जनता को जहाँ एक ओर प्राकृतिक आपदाएँ सता रही होती हैं वहीँ दूसरी ओर उनसे बचाव के नाम पर सरकारें उनके दैनिक कार्यों में बाधा पहुँचाने लगती हैं | लगता है उन अवरोधों से हो रही जनता कठिनाइयों की ओर सरकारों का ध्यान ही नहीं जाता है |
डेंगू को ही लें तो यदि वैज्ञानिकों का ऐसा कहना है कि साफ पानी में ऐसे मच्छर पनपते हैं तो जिन परिस्थितियों में सफेद मच्छर पनपते हैं जनता की दृष्टि में ऐसी परिस्थितियाँ जब जब बनें या जब तक बनी रहें जहाँ जहाँ बनी रहें तब तक वहाँ वहाँ डेंगू बना रहना चाहिए किंतु ऐसा तो नहीं होता है अपितु जब डेंगू समाप्त हो जाता है तो हममान लेते हैं कि अब वो परिस्थितियाँ समाप्त हो गई हैं जिनसे डेंगू होता है अब कहीं गमलों टंकियों कूलरों आदि में साफ पानी कहीं नहीं भरा होगा किंतु ये सच तो होता नहीं है | इसका मतलब ये हुए ऐसे प्राकृतिक रोगों को जब तक रहना होता है ये तब तक रहते ही हैं समय बीतने के बाद ये स्वयं समाप्त हो जाते हैं |
यही स्थिति वायु प्रदूषण बढ़ने की है जनता को जो करना है वो कार्य उसी गति से महीने करती है किंतु उन्हीं परिस्थितियों में वायु प्रदूषण का स्तर कुछ दिनों में बढ़ने और कुछ दिनों में कम होने का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं होता है | वायु प्रदूषण बढ़ने के लिए जिन कारणों को जिम्मेदार माना जाता है उन कारणों के समाप्त हो जाने के बाद तो वायु प्रदूषण समाप्त हो ही जाना चाहिए | दीवाली में होता है तो दिवाली समाप्त हो जाने के बाद समाप्त भी हो जाना चाहिए दूसरी बात चीन जैसे जिन देशों में दीवाली नहीं मनाई जाती है वहाँ उस समय नहीं बढ़ना चाहिए किंतु ऐसा होते तो नहीं देखा जाता है |
इसी प्रकार कोविड के नियमों का पालन जहाँ जहाँ नहीं किया गया वहाँ वहाँ कोरोना बढ़ना चाहिए जहाँ पालन हो रहा था वहाँ वहाँ नहीं बढ़ना चाहिए जबकि ऐसा होते देखा नहीं गया दिल्ली में किसान आंदोलनों में बिहार बंगाल के चुनावों में कुंभ जैसे मेलों में मजदूरों के पलायन में घनी बस्तियों में रहने वालों के द्वारा कोरोना नियमों का पालन नहीं किया जाता रहा इसके बाद भी वहाँ कोरोना का प्रकोप अन्य स्थानों की अपने बहुत कम रहा |ऐसे में जनता को यह लगना स्वाभाविक ही है कि कोविड नियमों के पालन के नाम पर उसे ब्यर्थ ही तंग किया गया जब कि सरकारें महामारी से बचाव के लिए कोविद नियमों का पालन कोरोना की औषधि की तरह कड़ाई से करवाती रही हैं |
ऐसा प्रायः सभी प्रकरणों में होता है जब वैज्ञानिक अनुसंधानों की असफलताओं का दंड जनता को दोनों तरफ से भुगतना पड़ता है एक ओर ऐसे निरर्थक अनुसंधानों पर उनके खून पसीने की कमाई का सरकारों को टैक्स रूप में दिया गया पैसा खर्च हो रहा होता है और दूसरी तरफ उन्हीं अनुसंधानों के द्वारा प्राप्त अधूरे अनुभवों से जनता को परेशान किया जाता है |
वैज्ञानिक अनुसंधानों की उपयोगिता
प्राकृतिक संकटों के आने के एक दिन पहले तक उनके विषय में वैज्ञानिकों को शासकों को कुछ पता नहीं होता है और संकट बीत जाने के बाद उससे संबंधित वैज्ञानिकों के अनुसंधानों की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है ऐसी परिस्थिति में उस प्रकार के अनुसंधानों की आवश्यकता है क्या है जो बीते सौ दो सौ वर्षों में अपनी उपयोगिता ही नहीं सिद्ध कर सके हैं ?
विज्ञान तो प्रत्यक्ष पारदर्शी एवं तर्कसंगत होता है | इसी कसौटी पर कसते हुए अत्याधुनिक वैज्ञानिक सोच रखने वाले लोग भारत की प्राचीन परंपरा से प्राप्त ज्ञान विज्ञान को अंधविश्वास रूढ़िवाद कहते रहे हैं | प्राकृतिक विषयों के उन्हीं अत्याधुनिक वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे उसी कसौटी पर आधुनिक महामारी विज्ञान,भूकंपविज्ञान,वर्षा एवं बाढ़विज्ञान,आँधी तूफ़ानविज्ञान और पर्यावरण विज्ञान को भी कसें और निष्कर्ष निकालें कि ऐसे प्राकृतिक विषयों से संबंधित जो भी वैज्ञानिक अनुसंधान किए या करवाए जाते रहे हैं यदि अभीतक वे न करवाए गए होते तो इनसे संबंधित प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में और किन किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता था | महामारी भूकंप तूफ़ान जैसी घटनाओं में जितना नुक्सान अभी होता है ऐसे विषयों पर अनुसंधान किए और करवाए गए होते तो क्या इससे भी अधिक नुक्सान हो सकता था | यदि नहीं तो ऐसे अनुसंधानों से जनता को कितनी मदद पहुँचाई जा पाती है इसका भी तो पता लगना चाहिए |
कुल मिलाकर ऐसे प्राकृतिक विषयों में वैज्ञानिक अनुसंधानों का यह ढुलमुल रवैया अत्यंत चिंताजनक है | महामारी हो या मौसम किसी भी क्षेत्र में वैज्ञानिकों की कोई सार्थक भूमिका क्यों नहीं दिखाई पड़ रही है | प्राकृतिक आपदा आने से पहले वे उसके विषय में कुछ भी बता पाने में कभी सफल नहीं हुए हैं और प्राकृतिक आपदाएँ जब बीत जाती हैं तब वही वैज्ञानिक लोग या तो आश्चर्य व्यक्त कर देते हैं या रिसर्च की आवश्यकता बता देते हैं या उन घटनाओं के के लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार बता देते हैं | कई बार तो महामारी या मौसम से संबंधित प्राकृतिक आपदाओं के विषय में कुछ भी बता पाने में असफल रहे वही वैज्ञानिक भविष्य से संबंधित तरह तरह की डरावनी अफवाहें फैलाने लगते हैं | जो गलत है वैज्ञानिक अनुसंधानों का यह उद्देश्य तो नहीं ही है |
इसलिए प्राकृतिक अनुसंधानों को भी कसौटी पर कसे जाने की आवश्यकता है कोई भी अनुसंधान
जिस वर्ग की कठिनाइयाँ कम करके उन्हें सुख सुविधा पहुँचाने के लिए किए
जाते हैं उन अनुसंधानों से संबंधित वर्ग को कितनी सुख सुविधा पहुँचाई जा
सकी उसके आधार पर उन अनुसंधानों की सफलता और असफलता का मूल्याङ्कन होना
चाहिए | जो अनुसंधान अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में जितने
प्रतिशत सफल होते दिखाई दें उन्हें उतने प्रतिशत ही सफल माना जाना चाहिए |
जो अनुसंधान अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में पूरी तरह ही असफल रहे हों ऐसे
निरर्थक कार्यों को अनुसंधान की श्रेणी से अलग कर दिया जाना चाहिए और उन
अनुसंधानों पर होने वाले व्यर्थ के व्ययभार से जनता की रक्षा की जानी चाहिए
क्योंकि जनता के द्वारा टैक्स रूप में सरकारों को दी गई उसके खून पसीने की
कमाई अनुसंधान कार्यों पर भी सरकारें खर्च किया करती है | उसके बदले ऐसे
अनुसंधानों से जनता को भी कुछ तो मदद मिलनी ही चाहिए | जिन अनुसंधानों से कोई मदद नहीं मिलती या मिल सकती है उस प्रकार के अनुसंधानों का बोझ जनता पर थोपा ही क्यों जाए |
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