bhumika

                              स्वस्थ या अस्वस्थ होने के कारण व्यक्तिगत भी होते हैं |   

     प्रत्येक व्यक्ति  चाहता है कि मन प्रसन्न एवं तन स्वस्थ रहे |इसलिए वह अपने जीवन में अच्छी संपत्ति अच्छा स्वास्थ्य अच्छे सहयोगी एवं अनुकूल परिस्थिति पाने की ईच्छा रखता है | इसीलिए वह निरंतर प्रयत्न करते रहता है | सृष्टि का विधान है कि कोई व्यक्ति कई बार प्रयत्न पूर्वक या भाग्यवश बहुत सारी चीजें अच्छी पा भी लेता है किंतु सारी अच्छी चीजें किसी  एक व्यक्ति को एक समय में कभी नहीं मिलती हैं | कुछ मिल जाती हैं तो कुछ का अभाव सहना पड़ता है | जिसे वो हँसते हँसते सह ले या परेशान होकर सहे सहना तो उसे ही है इसलिए दुखी भी वही होता है |मन परेशान होता  है तो इसका दुष्प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है |जिससे शरीर रोगी हो जाता है | ऐसी परिस्थितियों से बचे रहने के लिए या इनसे मुक्त होने के लिए  आगे से आगे तैयारियाँ करके रखने की आवश्यकता पड़ती है | ऐसा किया जाना  तभी संभव होता है जब ऐसी परिस्थितियाँ पहले से पता हों तो कुछ से बचाव सोचा जाता है जबकि कुछ को सहने के लिए तैयार हो  जाया जाता है |  

      कई बार कोई  मित्र रिश्तेदार या सगा संबंधी अचानक धोखा दे जाता है |कभी कभी बहुत विश्वसनीय सहयोगी लोग अचानक छोड़कर या धोखा देकर चले जाते हैं | कई बार अन्य प्रकार की सुख सुविधाएँ  धोखा दे जाती हैं | कई बार संपत्ति का अचानक नुक्सान होने लगता है | कई बार स्वास्थ्य अचानक ज्यादा बिगड़ जाता है और कोई बड़ा रोग हो  जाता है |ये सब बहुत बड़े संकट होते हैं जिनसे व्यक्ति न केवल परेशान हो जाता है अपितु उसके जीवन की दिशा दशा दोनों ही बिगड़ जाती है | जिस व्यक्ति के जीवन में इतनी भयानक घटनाएँ निकट भविष्य  घटित होने वाली हों उस व्यक्ति को उनके विषय में पहले से कुछ पता  ही न हो वह भविष्य के लिए बड़ी बड़ी योजनाएँ बनाते उनका विस्तार करते चला जा  रहा हो इसी बीच उसे अचानक बिल्कुल विपरीत अर्थात हिला देने वाली या मिटा देने वाली परिस्थितियाँ सहनी पड़ें तो उन्हें सहना आसान नहीं होगा | ऐसी घटनाओं से बचाव के विषय में तभी कुछ सोचा जा सकता है जब इनके विषय में पहले से पूर्वानुमान पता हों |

    इसीलिए प्राचीन भारत में ऐसी परिस्थितियों का पूर्वानुमान लगाने की वैज्ञानिकों ने व्यवस्था कर रखी थी | जिससे लोगों को प्रकृति एवं जीवन में घटित होने वाली भावी घटनाओं के  समय में बहुत मदद मिल जाया करती थी |देश परतंत्र हुआ तब ऐसे अनुसंधानों को आक्रांताओं ने बुरी तरह छिन्न भिन्न किया | जो  बचा उसे सहेजने एवं उसकी कड़ियाँ जोड़कर उन अनुसंधानों को फिर से खड़े करने की आवश्यकता थी ,किंतु  ऐसा किया नहीं गया अपितु उसे अंधविश्वास बता दिया गया | 
     उस युग के वैज्ञानिकों का मानना था कि लोगों की मृत्यु होने के लिए केवल महामारी या बाढ़ बज्रपात भूकंप तूफ़ान जैसी भयानक घटनाओं को या मनुष्यकृत दुर्घटनाओं को ही जिम्मेदार क्यों माना जाए ,क्योंकि ऐसी घटनाएँ न  घटित होतीं तो  भी जिसकी मृत्यु होनी थी वह तो होती ही लोग अमर तो हो नहीं जाते | कुछ घटनाओं के संयुक्त रूप से घटित हो जाने को एक दूसरे से जोड़ कर देखना वैज्ञानिक दृष्टि से तर्क संगत नहीं है | उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति की जिस समय जिस स्थान पर मृत्यु होनी निश्चित होती है मृत्यु से प्रेरित वह व्यक्ति उस समय उस स्थान पर पहुँच जाता है | मृत्यु की प्रक्रिया  घटित होने वाली ही थी कि उसी समय भूकंप आ गया जिससे वह बिल्डिंग गिर गई जिसके नीचे वह खड़ा था | उसकी मृत्यु अपने निर्धारित समय और स्थान पर हुई किंतु भ्रम ऐसा हुआ कि अचानक बिल्डिंग नीचे दबने से उसकी मृत्यु हुई है किंतु ऐसी घटनाओं में दबे हुए सभी लोगों की  मृत्यु तो होती नहीं  है उसमें भी बहुत लोग जीवित बच निकलते हैं | इसी तर्क के  अनुशार यह मान लिया जाता है कि मृत्यु होने का कारण बिल्डिंग के नीचे दबना नहीं अपितु उस  समय में जिनकी मृत्यु होनी थी उन्ही की हुई है | 
      बिल्डिंग के गिरने से ही यदि मृत्यु का होना मान लिया जाए तो बिल्डिंग का गिरना उसी समय आवश्यक क्यों था | इसका कारण यदि भूकंप को माना जाए तो भूकंप आने पर भी सभी बिल्डिंगें तो नहीं गिर जाती हैं | एक से एक जीर्ण शीर्ण बिल्डिंगों को भूकंपों के समय भी सुरक्षित बची रहते देखा जाता है |
     बिल्डिंग गिरने का कारण यदि पृथ्वी का कंपन ही माना जाए तो सारी पृथ्वी पर तो एक साथ भूकंप नहीं आ  जाता है | इसलिए ऐसा भी हो सकता था कि उस समय उस  स्थान पर भूकंप नहीं भी आ सकता था |   
    इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उस समय भूकंप आना,उसी स्थान पर भूकंप आना,उसी बिल्डिंग का गिरना ,उसी व्यक्ति का मृत्यु को प्राप्त होना ! ऐसी सभी घटनाएँ पूरी तरह अलग अलग घटित हो रही होती हैं |जिनका एक साथ कोई संबंध न होने पर भी हम एक दूसरे के साथ संबंध जोड़ लिया करते हैं |प्राचीन वैज्ञानिक ऐसी घटनाओं के  रहस्य को समझने के लिए इसमें सम्मिलित सभी घटनाओं के विषय में अलग अलग अनुसंधान करके यह पता कर लिया करते थे कि जिस प्रकार से वह समय उस व्यक्ति की मृत्यु होने का था उसी प्रकार से वही समय उस बिल्डिंग के गिरने का भी था | वही समय उस स्थान पर भूकंप आने का था | ये तीनों अलग अलग घटनाएँ अपने अपने समय और स्थान पर घटित होनी ही थीं | संयोगवश उन तीनों घटनाओं के घटित होने  समय और स्थान  एक ही था | 
      इस प्रकार से प्राचीन युग में घटनाओं को अलग अलग करके समझने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों को करने की प्रक्रिया थी |उनका मानना था कि किसी भी देश प्रदेश में  महामारी आने पर भी उससे वही व्यक्ति संक्रमित होता है जिसके  संक्रमित होने का समय  होता है और वही व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है जिनकी मृत्यु का समय होता है ,क्योंकि जिन परिस्थितियों में  रहते हुए कुछ लोग संक्रमित होते हैं या मृत्यु को प्राप्त हो रहे होते हैं | उन्हीं क्षेत्रों में उसी समय में उन्हीं परिस्थितियों में रहते  हुए भी बहुत लोग पूरी तरह से स्वस्थ बने रहते हैं जो न संक्रमित होते और न ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं | 
     प्राचीन वैज्ञानिकों का मानना था कि बुरे समय के प्रभाव से महामारी बाढ़ बज्रपात भूकंप तूफ़ान जैसी भयानक हिंसक घटनाएँ घटित होती हैं | ऐसी घटनाओं से अधिक खतरा उन्हें ही  होता है जिनका अपना समय भी बुरा होता है |उनके बुरे समय के प्रभाव से ही उन पर अच्छी से अच्छी चिकित्सा का भी  कोई विशेष प्रभाव  होते नहीं देखा जाता है |बुरे समय के  प्रभाव से ही उनके अपने लोग भी उनका साथ छोड़ देते हैं |
     इसलिए महामारी बाढ़ बज्रपात भूकंप तूफ़ान जैसी घटनाओं के समय होने वाली मौतों  के लिए केवल उन घटनाओं को ही नहीं दोष दिया जा सकता है अपितु अपने अपने बुरे समय के प्रभाव से लोग मृत्यु को प्राप्त हो रहे होते हैं | इसलिए महामारियों एवं उनमें होने वाली मौतों के लिए केवल महामारी बाढ़ बज्रपात भूकंप तूफ़ान जैसी घटनाओं के विषय  में भी अनुसंधान पूर्वक अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना पर्याप्त नहीं होगा,प्रत्युत   इसके लिए उन लोगों के विषय में भी अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना आवश्यक होगा जो ऐसी घटनाओं के प्रभाव क्षेत्र में आते हैं | आखिर उनमें से कितने प्रतिशत लोग ऐसे  हैं जिन्हें  खतरा अधिक है तथा कितने प्रतिशत को कम है एवं कितने प्रतिशत को बिल्कुल खतरा नहीं है | उसी हिसाब से उनके जीवन से संबंधित सुरक्षा की तैयारियॉँ  जाती हैं |
     इसीलिए प्राचीन काल के वैज्ञानिक पीड़ा प्रदान करने वाली हिंसक घटनाओं एवं संभावित पीड़ित लोगों दोनों के ही  विषय में अध्ययन अनुसंधानादि किया करते थे| ऐसी परिस्थिति में मनुष्य जीवन की समस्याएँ या आवश्यकताएँ तो उसी  प्राचीन काल की तरह ही आज भी हैं | उनका समाधान करने के लिए ऐसा वैकल्पिक विज्ञान कौन सा है जो उन आवश्यकताओं की आपूर्ति उसी प्रकार से अभी भी कर सकता है | वह विकल्प भी तो खोजा जाना चाहिए था | विकल्प खोजे बिना ही  प्राचीन विज्ञान की उपेक्षा करने  की भावना को जनहित की दृष्टि से हितकर नहीं माना सकता है |
    वर्तमानसमय में  कोरोना जैसी महामारियों एवं बाढ़ बज्रपात भूकंप तूफ़ान जैसी प्राकृतिक आपदाओं में होने वाली जनधन की हानि की सुरक्षा करने के लिए ऐसा सक्षम विज्ञान कौन सा है जिसके आधार पर प्राकृतिक घटनाओं एवं लोगों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जा  सकते हों | इस क्षमता के  अभाव में ही महामारी बाढ़ बज्रपात भूकंप तूफ़ान जैसी भयानक घटनाओं के अचानक घटित होने से समाज का भयभीत होना स्वाभाविक ही है |  
      रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के विषय में -
      भारत के प्राचीनवैज्ञानिक लोग केवल शारीरिक रोगप्रतिरोधक क्षमता के विषय में ही नहीं चिंतित थे अपितु  वे संपूर्ण प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के पक्षधर थे |वे संपूर्ण स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए शारीरिक मानसिक आत्मिक रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने लिए प्रयत्न किया करते थे | जिसे प्राचीन वैज्ञानिकों के द्वारा  'पुण्य' नाम दिया  गया था | उनके द्वारा किसी को  'पुण्यवान प्राणी ' कहने का मतलब संपूर्ण प्रतिरोधक क्षमता संपन्न मनुष्य और 'पापीप्राणी'  कहने का मतलब संपूर्ण प्रतिरोधक क्षमता विहीन मनुष्य !
    जिस प्रकार से विशिष्ट लोगों के आस पास भारी भरकम सुरक्षा घेरा होने पर भी  कई प्राण संकट होते देखा जाता है | पुण्य ऐसे स्थानों पर भी उस व्यक्ति के रोम रोम  की रक्षा करता है |भूकंप बाढ़ बज्रपात चक्रवात जैसे भीषण संकटों में जहाँ बहुत लोगों की मृत्युहोती है फँसकर भी 'पुण्यवान प्राणी 'सुरक्षित बच निकलते हैं उन्हें खरोंच तक नहीं  लगती है |हिंसक जीव जंतुओं के बीच फँसकर,शत्रु सैनिकों से घिर जाने पर, आतंकी घटनाओं से पीड़ित होने पर,पहाड़ों से गहरी खाइयों में गिरकर तथा भीषण महामारी संक्रमितों के बीच रहकर भी पुण्यबल से  सर्वांग  सुरक्षित बच निकलते हैं | ऐसे पुण्यबली लोगों को प्राकृतिक आपदाओं महामारियों में भी बड़ा भय नहीं होता है |
     पुण्य केवल शरीरों  की ही सुरक्षा नहीं करते प्रत्युत वे मनोबल एवं आत्मबल को भी मजबूत बनाए रखते हैं | इससे पुण्यवान प्राणियों की सर्वांग सुरक्षा होती रहती है | जिस प्रकार से मजबूत शरीर शारीरिक चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होते हैं उसी प्रकार से मजबूत  मन मानसिक  चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाता है और सुदृढ़ आत्मबल किसी व्यक्ति को  एक से  कठिन संकट से भी भयभीत नहीं होने देता है |मरणासन्न शरीर में भी नवजीवन का संचार कर देता है |जहाँ कोई सहायक नहीं होता वहाँ भी हमारा आत्मबल हमें सहारा देता है। 
    इसीलिए प्राचीन वैज्ञानिकों ने प्रत्येक प्राणी को आगे से आगे संपूर्ण प्रतिरोधक क्षमता संपन्न बनाए रखने के लिए धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच , इंद्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध इन दश लक्षणों का परिपालन आवश्यक माना जाता था ।इनके परिपालन से  शारीरिक बल के साथ साथ मानसिक एवं आत्मिक बल भी रहता है |इनके पालन से व्यक्तिगत सुरक्षा तो होती ही है इससे समाज प्रदेश देश की भी संपूर्ण प्रतिरोधक क्षमता बढ़कर वह क्षेत्र महामारी काल में भी महामारी मुक्त बना रहता है | वहाँ महामारियों का प्रकोप नहीं होता है |ऐसे स्थानों को अपराध मुक्त बने रहते देखा जाता है यहाँ ऋतु प्रभाव भी आवश्यकतानुसार ही होता है |
विषय में प्रयत्न किया करते थे| उनका मानना था कि वे    सात्विक भोजन सदाचरण संस्कार 

                                      महामारी संबंधित  पूर्वानुमानों की आवश्यकता !
    प्राचीनकाल में प्रकृति हो  या जीवन दोनों ही विषयों में पूर्वानुमानों की बहुत  अधिक आवश्यकता समझी जाती थी | उनका मानना था कि बाढ़ बज्रपात भूकंप तूफ़ान जैसी घटनाओं के अचानक घटित होने से जनधन  का नुक्सान बहुत अधिक हो जाता है | उस समय चाहकर भी इन्हें रोक पाना संभव नहीं होता है और न ही इनसे तुरंत बचाव किया जाना ही संभव होता है | ऐसी घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान यदि पहले से पता होते हैं तो सतर्कता पूर्वक अपने बचाव के लिए यथा संभव प्रयत्न कर लिए जाते हैं | कुछ तो  बचाव हो ही जाता है |
    महामारी जैसी घटनाओं को ही लें तो ऐसी भीषण हिंसक घटनाएँ अचानक जब हमला करती हैं तब बड़ी संख्या में लोग तुरंत संक्रमित होने और मरने लगते हैं | ऐसी घटनाओं के विषय में पहले से यदि पूर्वानुमान पता न हों उस समय बचाव के लिए अचानक क्या उपाय किया जा सकता है |
    रोग हो या महारोग उसकी प्रकृति का ठीक ठीक अनुभव किए बिना उससे बचाव के लिए कोई सार्थक उपाय कैसे किए जा सकते हैं | उसके लिए सटीक औषधियों का निर्माण किया जाना तब तक कैसे संभव है जब तक कि रोग के  विषय में वास्तविक कारणों लक्षणों संक्रामकता आदि के विषय में पता न हो | इनका अध्ययन करने के लिए समय चाहिए | उसका पता लग जाने के बाद इतने बड़े रोग से मुक्ति दिलाने के लिए प्रभावी औषधियों के विषय में तुरंत निर्णय लेना भी आसान नहीं होता और निर्णय लेने के बाद भी तुरंत औषधि निर्माण करना संभव नहीं होता ,वो भी इतनी बड़ी मात्रा में बनाना इसके बाद उसे जन जन तक पहुँचाना ये सब किया जाना उस समय कैसे संभव है यह सब करने के लिए पर्याप्त समय चाहिए होता है | 
     महामारी की तो शुरुआत ही संक्रमण और संहार से होती है जब तक महामारी को जाँचा परखा जाएगा ,उपाय खोजे जाएँगे तबतक महामारी इंतजार तो करती नहीं रहेगी |इसलिए  यह सब किया जाना तभी संभव है जब महामारी आने के विषय में पूर्वानुमान कम से कम इतने पहले से तो पता हों कि ये सारी तैयारियाँ करने के लिए पर्याप्त समय तो मिल सके | इसके अभाव में महामारी एक ओर बड़ी तेजी से जनसंहार करते जा रही होती है ! वहीं दूसरी ओर उस समय उससे बचाव के लिए प्रभावी उपाय करना संभव ही नहीं हो पाता है |उस समय महामारी के विषय में आशंकाएँ व्यक्त की जा रही होती हैं | महामारी की इतनी बड़ी आँधी में अपनी अपनी जान बचाना तो मुश्किल होता है | उस समय दूसरों के बचाव  के लिए उपाय खोजना या प्रभावी प्रयत्न किया जाना आसान नहीं होता है |पूर्वानुमान पहले से पता हों तभी  ऐसी सारी तैयारियाँ आगे से आगे करके रखी जा सकती हैं वही ऐसे अवसरों पर प्रभावी भूमिका निभा पाती हैं ?
      इसीलिए भारत के प्राचीन वैज्ञानिक ऐसी सभी घटनाओं के विषय में आगे से आगे पूर्वानुमान लगाने पर अधिक बल दिया करते थे |उनका मानना था कि ऐसी महामारियों  या प्राकृतिक आपदाओं के विषय में पहले से पता हो तो बचाव  के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न तो कर ही लिए जाएँगे |           

                  महामारी को पहचाना कैसे जाए !  

     प्राचीन काल के वैज्ञानिकों का  मानना था कि सामान्य रोग तो सामान्य औषधियों से ठीक हो जाते हैं विशेष रोग विशेष औषधियों से ठीक  होते हैं किंतु महारोगों अर्थात महामारियों से मुक्ति दिलाने के लिए तो अत्यंत प्रभावी महाऔषधियों की आवश्यकता होती है | ऐसी औषधियाँ महामारीसंक्रमितों को देने पर जितना अच्छा प्रभाव करती हैं उतना ही बुरा प्रभाव उन रोगियों पर करती हैं जो महामारियों से संक्रमित न होकर किन्हीं अन्य रोगों से रोगी होते हैं |ऐसे रोगी कई बार महाऔषधियों का प्रभाव सह नहीं पाते हैं और उन महाऔषधियों के प्रभाव से सामान्यरोगियों की मृत्यु होते देखी जाती है |
    किसी समय विशेष में अचानक बड़ी संख्या में रोगी होने वाले रोगियों को देखकर या अचानक हो रही  बहुत लोगों की मौतों को देखकर उसे महामारी मान लिया जाना तर्कसंगत नहीं है | इसीलिए प्राचीन वैज्ञानिक महामारियों के अध्ययन के लिए सबसे पहले यह पता लगाना आवश्यक समझते थे कि इस समय किसी महामारी का जन्म होना संभव  है भी या नहीं !दूसरी बात आकाशीय उन लक्षणों से मिलान करते थे जिनके प्रकट होने पर महामारी जैसी घटनाओं के पैदा होने की संभावना बनती है | उन प्राकृतिक परिवर्तनों का अध्ययन करते थे जो महामारियाँ पैदा होने से पूर्व प्रकट होते हैं | इतनी बड़ी महामारियाँ पैदा हों और उनके चिन्ह प्राकृतिक वातावरण में प्रकट न हों  यह संभव ही नहीं है | उन्हें समझने की क्षमता चाहिए होती है |  
     इसलिए प्राचीन वैज्ञानिकों के द्वारा सबसे पहले यह पता लगाया जाता था कि मनुष्यों के अचानक बड़ी संख्या में रोगी होने या मृत्यु को प्राप्त होने का कारण महामारी ही  है या कुछ और ! उनका मानना था कि एक समय पर बहुत लोगों की मृत्यु होने का निश्चित कारण महामारी ही हो यह आवश्यक नहीं है | कई बार ऐसा होने के लिए जिम्मेदार मनुष्यकृत या कुछ अन्य प्राकृतिक कारण भी होते  देखे जाते हैं |
     प्राचीनभारत के  महान वैज्ञानिक महामारियों  संबंधित अनुसंधान करते समय  यह पता लगाने के  लिए भी पूर्ण प्रयत्न किया करते थे कि जिस समय किसी रोग विशेष से बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो रही होती है, कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसीसमय कुछ अन्य रोगों से या प्राकृतिक आपदाओं से या मनुष्यकृत उपद्रवों से भी बड़ी संख्या में लोगों की मौतें अचानक होने लगी हों |ऐसा होने पर महामारी को पहचानना विशेष कठिन होता है |   
    कई बार तरह तरह के रोग लक्षणों वाले रोगों से तो बहुत लोगों की अचानक मृत्यु हो ही रही होती है, उसीसमय अचानक कुछ अन्य प्राकृतिक आपदाएँ भी घटित होने लगती हैं | उनसे बहुत लोगों की मृत्यु होने लगती है | उसी  कालखंड में मनुष्यों के मन में अचानक उन्माद की भावना जन्म लेने लगती है जिससे लोग हिंसाप्रिय हो जाते हैं |इससे परिवारों में समूहों में प्रदेशों देशों में न केवल तनाव बढ़ने लगता है अपितु वे एक दूसरे के  प्राणों के प्यासे  हो जाते हैं |पीढ़ियों के बैर  याद करके हिंसक झगड़ों पर उतारू हो जाते हैं | ऐसी स्थिति में समाज में फैले उन्माद से ,आंदोलनों से ,दंगों से, आतंकी घटनाओं से,दो या  दो से अधिक देशों में होने वाले युद्धों से अचानक बड़ी संख्या में लोग मृत्यु को प्राप्त होने लगते हैं !ऐसे तमाम प्रकार के मनुष्यकृत कारण  बन जाते हैं | कई बार उसी समय में अचानक बड़ी संख्या में पशु पक्षियों की भी मृत्यु होते देखी जाती है |ऐसी सारी घटनाएँ एक साथ घटित होने के विशेष कारण को भी खोजना होता  है | 
    ऐसी परिस्थिति में महामारी काल में रोगी होकर मृत्यु को प्राप्त होने वाले बहुसंख्य लोगों की मृत्यु होने का कारण यदि महामारी को मान भी लिया जाए तो ऐसा होना निश्चित तो  नहीं है कि जिसकी मृत्यु होगी उसका पहले बीमार  होना आवश्यक ही है ,क्योंकि ऐसे भी बहुत लोगों की मृत्यु होते देखी जाती है जो जीवन में कभी रोगी हुए ही नहीं या हुए भी हों तो मृत्यु के समय में उन्हें कोई रोग नहीं था | इसके अतिरिक्त जब मृत्यु को  प्राप्त हुए तब अन्य भी कोई ऐसी हिंसक घटना नहीं घटित हुई होती है जिसे प्रत्यक्ष रूप से मृत्यु का कारण माना जा सके !
     एक ही समय रोगों के अतिरिक्त घटित अन्य घटनाओं में बहुसंख्य लोगों की मृत्यु होने का कारण दूसरा और क्या हो सकता है वह भी खोजना आवश्यक होगा |कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिन मौतों के लिए जिम्मेदार कारण प्रत्यक्ष रूप से तो भिन्न भिन्न घटनाएँ दिखाई दे रही होती हैं किंतु उन सभी घटनाओं का परोक्ष कारण कोई एक ही हो जो सभीप्रकार से होने वाली मौतों का वास्तविक  कारण हो | जिसे खोजे बिना निश्चय पूर्वक यह कहा जाना संभव नहीं है कि अमुक कालखंड में विविध प्रकार की घटनाओं में इतने अधिक लोगों की मृत्यु होने का कारण महामारी ही है | 
   इसलिए बहुसंख्य लोगों की अचानक मृत्यु होने का कारण महामारी को मानना तब तक के लिए अनुचित रहेगा जब तक कि महामारी काल में ही अन्य प्राकृतिक या मनुष्यकृत घटनाओं में अचानक हो रही उन बहुसंख्य मौतों के लिए जिम्मेदार वास्तविक  कारण न खोज लिया जाए ! क्योंकि उसी कालखंड में ऐसी हिंसक घटनाएँ अधिक  घटित होने का कारण क्या रहा होगा महामारी संबंधी अनुसंधानों के लिए यह पता लगाना भी  तो आवश्यक है|  कहीं ऐसा तो नहीं कि प्राकृतिक या मनुष्यकृत उन हिंसक घटनाओं का कोई संबंध उन मौतों से भी  होता हो जो कि रोगी होने से हो रही मौतों के लिए जिम्मेदार हों |
    संभावना इस बात की भी बनी ही रहती है कि जिन रोगों को महामारी समझा जा रहा होता है | उन रोगों का और रुग्णावस्था में  होने वाली मौतों का आपस में कोई संबंध ही न होता हो ! रोगों का कारण कुछ और हो और मौतें होने  का कारण कुछ और ही होता हो !क्योंकि मौतों का कारण यदि रोगी होने को माना जाए तो रोगी होने वाले सभी लोग तो मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं |
      कुछ उन लोगों की भी मृत्यु होते देखी जाती है जिन्हें न तो कोई रोग होता है और न ही उनकी मृत्यु होने का कोई प्रत्यक्ष कारण होता है | इससे स्वाभाविक रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आवश्यक नहीं है कि रोगी होने का,या सभीप्रकार की दुर्घटनाओं का मृत्यु से कोई संबंध होता ही हो | जिन प्राकृतिक या मनुष्यकृत घटनाओं में फँसे बहुत लोगों में से कुछ लोगों की मृत्यु होने को उन घटनाओं से जोड़कर देखा जाता है जबकि ऐसा इसलिए तर्कसंगत नहीं लगता है क्योंकि भूकंप चक्रवात बज्रपात बाढ़ जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं में बहुसंख्य लोगों के एक साथ एक जैसे पीड़ित होने पर भी उनमें से कुछ लोग ही मृत्यु को प्राप्त होते  हैं बाकी कुछ घायल होते और कुछ के तो खरोंच भी नहीं लगती है, जबकि उन हिंसक घटनाओं का दुष्प्रभाव तो उनसे प्रभावित सभी लोगों पर प्रायः एक जैसा ही पड़ता है फिर उनके पीड़ित होने की प्रक्रिया में अंतर होने का कारण क्या हो सकता है |
     संभावना यह भी हो सकती है कि किसी एक ही समय में जब बहुसंख्य लोग रोगी होते जा रहे हों |उस समय संसाधनों के अभाव में उतने अधिक लोगों तक चिकित्सा न पहुँचाई जा पा रही हो इसलिए जिन्हें अच्छीचिकित्सा मिलती हो वे स्वस्थ हो जाते हों और जो चिकित्सा से  बंचित रह जाते हों  वे ही मृत्यु को प्राप्त  होते हों ,किंतु ये तर्कसंगत इसलिए नहीं  लगता है क्योंकि ऐसे समय  में भी बहुत साधन संपन्न रोगी अत्यंत उच्चकोटि की चिकित्सा सुविधाओं का लाभ लेते हुए भी मृत्यु को प्राप्त होते देखे जाते हैं तो कई उन साधन विहीन रोगियों को भी स्वस्थ होते देखा जाता है जिनके स्वस्थ होने में चिकित्सा की कोई भूमिका ही नहीं रहती है |
    कुलमिलाकर किसी समय विशेष में बहुसंख्य लोगों की मृत्यु होने के लिए महामारी के  अतिरिक्त भी तो बहुत सारे ज्ञाताज्ञात कारण जिम्मेदार हो सकते हैं |इसलिए केवल संक्रमितों की संख्या बढ़ने या मौतों की अधिकता को ही आधार बनाकर महामारी मानलेना न तो तर्कसंगत है और न ही विज्ञान सम्मत  है | इसी कारण ऐसे कालखंड में महामारी का निश्चय किए बिना महामारी से संक्रमित समझकर रोगियों  की गई चिकित्सा के दुष्प्रभाव भी तो रोगियों की मृत्यु का कारण हो सकते हैं |
     इसीलिए प्राचीन भारतवर्ष के वैज्ञानिक विद्वान् स्वास्थ्य संबंधी ऐसी कोई भी सामूहिक हिंसक  घटना महामारी है भी या नहीं उसका निश्चयपूर्वक पता करने के लिए महामारी को प्रत्यक्ष देखने के अतिरिक्त  उसके अप्रत्यक्ष कारणों की भी खोज किया  करते थे | उनका मानना था कि महामारी को पहचानने के लिए कुछ अन्य प्रभावी स्रोत भी पता होने चाहिए जिनसे या निश्चय हो सके कि अमुक घटना  वास्तव में  महामारी है भी  या नहीं |इसका निराकरण किया जाना तभी संभव है जब ऐसी घटनाओं के विषय में  पहले से सही सही पूर्वानुमान पता हो | 
    वैज्ञानिकलोग उस  युग में महामारी के  विषय में महामारी आने से काफी पहले पूर्वानुमान घोषित कर दिया करते थे | उन्हीं के अनुशार यदि महामारी शुरू होने की घटना घटित होने लगती थी इसका मतलब यह मान लिया जाता था कि महामारी तो आ ही गई है इसके साथ  यह भी विश्वास हो जाता था कि वैज्ञानिक लोग महामारी को समझने में सफल हो  गए हैं तभी तो उनके द्वारा लगाए गए पूर्वानुमान सही निकले हैं | पूर्वानुमान  लगाने के अतिरिक्त महामारी को पहचानने के लिए कोई अन्य सशक्त एवं विश्वसनीय प्रक्रिया नहीं है | इसीलिए प्राचीन वैज्ञानिक लोग सबसे पहले ऐसी सभी घटनाओं के विषय में सही पूर्वानुमान लगाना आवश्यक मानते थे | 

 

 

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 पूर्वानुमान एक चुनौती !

                                                                दो शब्द !  


     महामारी भूकंप  बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान जैसी सभीप्रकार की हिंसक प्राकृतिक घटनाएँ अचानक घटित  होने लगती हैं |इनका वेग इतना अधिक होता है कि काफी बड़ी संख्या में लोग ऐसी  घटनाओं से तुरंत प्रभावित हो जाते हैं |पहले झटके के साथ ही भारी नुक्सान हो जाता है  ! इतनी जल्दी में सबकुछ होता है कि उस समय सोचने समझने के लिए समय ही कहाँ मिल पाता है| उनमें से बहुत सारे लोग तो मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं |   
    ऐसे संकटकाल में जनधन की इतनी अधिक  हानि न हो तथा अधिक से अधिक लोगों को सुरक्षित बचाया जा सके |यह सुनिश्चित करने के लिए तुरंत तो कुछ किया नहीं जा सकता है| ऐसे समय में तो पहले से करके रखी गई प्रभावी तैयारियाँ ही कुछ काम आ पाती हैं | ऐसी प्राकृतिक आपदाओं को  समझने, उनसे बचाव  हेतु उपाय सोचने एवं उन पर अंकुश  लगाने के लिए समय तो चाहिए | इसीलिए सबसे पहले उन तैयारियों को करने हेतु ऐसी हिंसक घटनाओं के विषय में पूर्वानुमान लगाने की आवश्यकता होती है | ऐसा किए बिना उन घटनाओं से बचाव के विषय में कोई जानकारी जुटाना कैसे संभव हो सकता है   
      महामारी जैसी इतनी बड़ी हिंसक घटनाओं को तुरंत समझना, उनके लक्षण पहचानना, उनके स्वभाव का परीक्षण करना उससे बचाव के लिए उपाय खोजना ,इतनी बड़ी मात्रा में औषधि निर्माण करना,उसे जन जन तक पहुँचाना आदि तुरंत कैसे संभव है वो  भी तब जब घटनाओं बढ़े वेग के कारण  पलपल  परिस्थितियाँ  बिगड़ती जा  रही हों | उस समय अनुसंधान करने लायक न समय होता है और न ही  संसाधन |
    ऐसी बड़ी हिंसक घटनाएँ वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए इसी कारण चुनौती  होती हैं क्योंकि  वो अचानक आकर बड़े वेग से  हमला करती हैं जिनके विषय में पहले से किसी को कुछ पता ही नहीं होता है|  निहत्थे लोग अचानक संक्रमित होने और मरने लगते हैं | उस समय जनता को महामारी आने के  विषय में  पता लगता है पूर्वानुमान विज्ञान के अभाव में वैज्ञानिकों सरकारों आदि को भी उसी समय महामारी संबंधी जानकारी हो पाती है | ऐसे भयानक संकटकाल में एक से एक कुशल वैज्ञानिक चाहकर भी जनता की मदद कैसे कर सकते हैं जब उन्हें स्वयं ही पता नहीं होता है कि महामारी आने वाली है तो  वे उससे बचाव के लिए पहले से तैयारियाँ करके कैसे रख सकते हैं | 
   इसके लिए तो आगे से आगे पूर्वानुमान लगाकर महामारी आने से पहले ही ऐसे संयमित आचार बिचार रहन सहन खान पान आदि को अपनाने की सलाह दी जाएगी जिसके  प्रभाव से लोग संक्रमित न हों | उसके बाद तत्कालीन मौसम आदि के आधार पर  महारोग की प्रकृति को समझने का प्रयत्न किया जाएगा| उसके आधार पर प्रभावी औषधियाँ खोजी जाएँगी |आवश्यकता पड़ने पर उन औषधियों का अधिक मात्रा में निर्माण करने के लिए अधिक मात्रा में औषधि उपयोगी द्रव्यों का संग्रह भी करना होगा | पहले से करके रखी गई ऐसी सभी  तैयारियों  बल पर ही उस  समय महामारी से जूझती जनता को कुछ मदद पहुँचाई जा सकती है |  वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधानों में इसप्रकार की क्षमता न होने के कारण महामारी या मौसम संबंधी सभी प्राकृतिक आपदाओं के समय भारी मात्रा में जनधन की हानि होते देखी जाती है | कोरोना महामारी  के  समय भी इसी लिए तो अधिक नुक्सान हुआ है |
     जिन महामारी जैसी प्राकृतिक घटनाओं के विषय में इतने बड़े बड़े वैज्ञानिक लोग निरंतर अनुसंधान इसी उद्देश्य से किया करते हैं कि जब ऐसी घटनाएँ  घटित होंगी उस समय ऐसे अनुसंधान समाज के काम आएँगे,किंतु जब उस प्रकार की घटनाएँ  घटित होती हैं तब तमाम किंतु परंतु लगाकर अनुसंधान करने वाले  वैज्ञानिक लोग तो अलग खड़े हो जाते हैं | उस सारी विपत्ति का सामना उस समाज को करना पड़ता है |जिसके खून पसीने की कठिन कमाई से टैक्स रूप में सरकारों को दिए गए धन से ऐसे अनुसंधान  संचालित होते हैं |
    एक आपदा बीतने के बाद वैज्ञानिक लोग  नया अनुसंधान अगली प्राकृतिक आपदा के लिए शुरू कर दिया करते हैं | उस समय भी वही होता है जो पहले में हुआ था !वो भी जनता को ही सहनी पड़ती है | ऐसा आखिर कब तक चलेगा |
                                पूर्वानुमानों से मिल सकती है मदद ,यदि वे सही हों तो !
     प्राकृतिक आपदाओं के विषय में समय पर सही पूर्वानुमान पता लग जाने के कारण संभावित परिस्थितियों से निपटना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है| ऐसी घटनाओं के अनुमान पूर्वानुमान आदि यदि नहीं लगाए जा सके या जो लगाए जाते रहे और वे गलत निकलते रहे, तो ऐसे अनुमानों पूर्वानुमानों की जनहित की दृष्टि से उपयोगिता ही क्या बचती है| उनमें लगा समाज का धन एवं समय बर्बाद होता है| सरकार का पैसा भी तो समाज का ही होता है |
    इसलिए  ऐसे अनुसंधानों की वैज्ञानिकता पर प्रश्न खड़े होने  स्वाभाविक हैं | उस विज्ञान की विश्वसनीयता भी इसीलिए घट जाती है,वह विज्ञान कैसा  जिसके आधार पर लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि गलत ही निकलते रहें | इनमें समाज का  समय और सरकार का पैसा यूँ ही बर्बाद होता रहता है और समाज को हर बार निराशा ही हाथ लगती है |
   प्राकृतिक आपदाओं से चूँकि भारी मात्रा में जनधन हानि होती है|वैज्ञानिक अनुसंधानों का उद्देश्य यदि नुक्सान  को कम करना या समाप्त करना ही है तो ईमानदारी पूर्वक इसकी पूर्ति के लिए प्रयत्न भी तो किए जाने चाहिए | सरकार समाज एवं वैज्ञानिकों का यही आवश्यक कर्तव्य है कि महामारी जैसी भयानक आपदाओं का पूर्वानुमान लगाने के लिए किए  जाने वाले अनुसंधानों पर जनता का धन खर्च नहीं किया जाना चाहिए और यदि खर्च किया जाता है तो जनता को बताया भी जाना चाहिए कि उन अनुसंधानों से समाज को ऐसा लाभ क्या मिला है जो अनुसंधानों के बिना संभव न था | कोरोनामहामारी के विषय में यदि वैज्ञानिक लोग अनुसंधान न करते आ रहे होते तो क्या इससे भी अधिक दुर्दशा होती ! दूसरी लहर की भयावहता भारत भूला नहीं है | 
    जिन अनुसंधानों पर जनता का धन खर्च किया जाता है उनसे जनता को कुछ लाभ तो मिलना ही चाहिए | महामारी संक्रमितों  को  चिकित्सा नहीं मिल सकी तो सही पूर्वानुमान ही उपलब्ध करवा दिए जाते | प्राकृतिक अनुसंधानों  से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधानों के छलावे में समाज को अब और अधिक समय तक नहीं रखा जाना चाहिए |समाज को स्पष्ट रूप से  बता दिया जाना चाहिए कि प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारियों  के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है या नहीं ! समाज ऐसे अनुसंधानों से कोई आशा करे या न  करे ! 
    कुलमिलाकर कोरोना महामारी के  विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा बार बार बदल बदलकर दिए जाते रहे वक्तव्य निराश करने वाले तो रहे ही हैं इसके  साथ ही वैज्ञानिक अनुसंधानों के खोखलेपन को उद्घाटित करने वाले हैं |  
      इसलिए  अब वह समय आ गया है जब जिसकिसी भी प्रकार से संभव हो प्राकृतिक आपदाओं से तैयार होने वाले संकटों को कम करके जनता को सुरक्षित किया जाना चाहिए | वर्तमानसमय में प्रचलित वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति से इस उद्देश्य की पूर्ति होते नहीं दिख रही है |
    इसका कारण कोरोनामहामारी के  समय में वैज्ञानिकों के द्वारा बार बार लगाए जाते रहे अनुमानों पूर्वानुमानों का हर  बार गलत निकलते जाना है |उनके द्वारा की गई प्रायः हर भविष्यवाणी गलत निकलती रही  है |बाद में यह कह दिया जाता रहा कि महामारी का स्वरूप परिवर्तन हो रहा है| इस कारण पूर्वानुमान गलत निकल रहे हैं | यह न तो तर्क संगत है और न ही स्वीकरणीय है| जिस महामारी से लाखों लोगों की जान पर बन आई हो वहाँ इसप्रकार की वैज्ञानिक  विवशता भय को बढ़ाने वाली होती है |
    मौसमविज्ञान के नाम पर तो बहुत समय से यही सब कुछ होता आ रहा है मौसम पूर्वानुमान के  नाम पर पहले दुनियाँ भर की भविष्यवाणियाँ कर दी जाती हैं और बाद में दैवयोग से जितना जो कुछ सही निकल जाता है उसे तो भविष्यवाणी मान लिया जाता है और जो गलत निकल जाता है | उनका कारण जलवायु परिवर्तन को बता दिया जाता है | ये महामारी के स्वरूप परिवर्तन की तरह की ही है | 
     वस्तुतः मौसम हो या महामारी दोनों के ही विषय में पूर्वानुमान लगाने के लिए अभी तक कोई ऐसा विज्ञान नहीं है जिसके आधार पर विश्वास पूर्वक कुछ कहा जाना संभव हो |यदि कभी कुछ सही निकल भी जाए तो वह एक अंदाजा मात्र होता है | उसका आधार विज्ञान नहीं होता है, क्योंकि इससे प्रकृति के स्वभाव को  समझना संभव नहीं  है |प्रकृति के  स्वभाव को  समझे बिना उसकी भावी गतिविधि के विषय में कैसे कोई पूर्वानुमान लगाया सकता है | 
     आप यदि किसी के स्वभाव को समझते हो तो उस स्वभाव के आधार पर ही  तो आप यह अंदाजा लगा लेते हो कि अमुक व्यक्ति क्या कर सकता है और क्या नहीं  निकट भविष्य में क्या करने वाला है| उसी के अनुशार उसके भावी कदम के  विषय में कोई अंदाजा लगाया जा सकता है उसी स्वभाव आधारित अंदाजे को पूर्वानुमान कहा जाता है | 

                                   


    
     इसलिए ऐसी सभी मौतों के लिए केवल महामारी को ही जिम्मेदार मान लिया जाना उचित नहीं है |आखिर अन्य लोगों की मृत्यु होने का मनुष्यकृत  कारण भी खोज कर रखना होता है तभी इसका निराकरण किया जाना संभव है | इसीलिए प्राचीन वैज्ञानिक लोग ऐसे मृत्यु कारणों को न केवल अलग अलग खोज करके रखा करते थे अपितु उनके विषय में पूर्वानुमान भी आगे से आगे लगाकर रख लिया करते थे कि ऐसी प्राकृतिक एवं मनुष्यकृत घटनाएँ घटित होने की कब संभावना है |कोरोना महामारी के समय ही ये दोनों प्रकार की घटनाएँ घटित होती  देखी जा  रही थीं | 
     किसी की मृत्यु हो  जाने का कारण  कोई घटना या दुर्घटना ही हो यह आवश्यक  तो नहीं है | इसलिए हर किसी की मृत्यु होने के लिए किसी न किसी घटना को जिम्मेदार कारण मान लिया जाना ठीक नहीं है | मृत्यु होने  का कारण यदि महामारी होती तो महामारी का प्रभाव तो सब पर पड़ता और सभी रोगी होते और  संक्रमित होने वाला प्रत्येक रोगी मृत्यु को प्राप्त होता ! मृत्यु का  कारण यदि दुर्घटनाएँ होतीं तब तो दुर्घटनाग्रस्त हर व्यक्ति की मृत्यु होती ! मौतों का कारण यदि प्राकृतिक आपदाएँ होतीं तब तो उससे प्रभावित सभी लोगों की मृत्यु होनी चाहिए थी | ऐसे जितने भी कारण माने जाते या जा सकते हैं जिन्हें किसी की मृत्यु होने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा  सकता है | यदि  इस बात  में सच्चाई होती तो उन कारणों के बिना किसी की मृत्यु होनी ही नहीं चाहिए किंतु ऐसा होता नहीं है |बहुत लोगों को बैठे बैठे चलते फिरते नहाते धोते खाते पीते नाचते कूदते पूजा करते प्रसन्नता  मुद्रा में भी मृत्यु को प्राप्त होते देखा जाता है | ऐसे लोगों की मृत्यु होने के लिए कोई तर्क संगत जिम्मेदार कारण खोजे बिना किसी की मृत्यु होने के लिए महामारी या किसी दुर्घटना को आरोपित किया जाना उचित नहीं है |
     भारत के प्राचीन विज्ञान में महामारियों का अध्ययन करने के लिए केवल महामारियों का ही अध्ययन नहीं किया जाता था अपितु उस समय के प्राकृतिक वातावरण के साथ ही साथ  लोगों के शरीरों के विषय में भी अनुसंधान पूर्वक आगे से आगे  यह पूर्वानुमान लगाया जाता था कि संभावित प्राकृतिक आपदा में कितने प्रतिशत लोग संक्रमित हो सकते हैं और कितने प्रतिशत लोग मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं और कितने प्रतिशत लोग सुरक्षित बचे रह सकते हैं उनके संक्रमित होने की संभावना कम है | ऐसे लोगों को सुरक्षित समझकर उन्हें घर परिवार व्यापार बाजार आदि सँभालने की जिम्मेदारी सौंप कर शेष लोगों के बचाव के लिए प्रयत्न करने होते थे |इससे  परिवार व्यापार बाजार संबंधी आवश्यक कार्य भी नहीं रोकने पड़ते थे और महामारी मुक्त समाज की संरचना में भी मदद मिल जाती थी |
                                    
     
 
महामारी बाढ़ बज्रपात भूकंप तूफ़ान जैसी घटनाएँ कब कैसी
  स्वास्थ्य संपत्ति सुख दुःख जीवन मृत्यु कब  कैसी रहेगी |  प्राचीन काल में पूर्वानुमान लगाने की अद्भुत परंपरा थी | उस समय प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के विषय में आगे से आगे जानकारी रखता था कि भविष्य में उसका  
     ऐसी परिस्थिति में इतने आवश्यक विषय पर बार बार गलती करने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए | ऐसी किंकर्तव्यविमूढ़ता को आखिर कितने दशकों तक और सहा जाएगा | विकल्पों की तलाश भी तो आवश्यक ही है | महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं से बहुमूल्य मनुष्य जीवन की सुरक्षा के लिए यथा संभव प्रभावी प्रयत्न किए जाने चाहिए | इसके लिए यह संकीर्ण आग्रह ठीक नहीं है कि इसी विज्ञान से संबंधित इन्हीं वैज्ञानिकों के द्वारा इसी वैज्ञानिक प्रक्रिया से अनुसंधान किए जाएँगे | 


 एवं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए अलग अलग प्रक्रिया भले कोई भी अपनाई जाती रहे  किंतु उनके द्वारा अनुमान पूर्वानुमान आदि जो भी लगाए जाएँ |यदि वे सही निकल रहे हैं 
 
 का यदि यही  वास्तविक विज्ञान है जिसके द्वारा  अभी तक अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जाते रहे हैं तो उस  विज्ञान की प्रमाणिकता तो तभी सिद्ध होगी जब उसके आधार पर लगाए गए अनुमानों पूर्वानुमानों को सही होते पीड़ित जनता के द्वारा देखा जाए !यदि ऐसा नहीं होता है तो ऐसे किसी भी विषय को विज्ञान के रूप में थोपा जाना या उसका पठन पाठन आदि कितना उचित है | उसकी सार्थकता सिद्ध हुए बिना उसको ढोते रहने का औचित्य ही क्या है| यदि कोई दूसरा विषय भी इस रिक्तता को भरने में सक्षम हो और उसे अपनाकर जनता की मदद की जा सकती हो तो उसे भी विज्ञान के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए |   
      महामारी वैज्ञानिकों की योग्यता को तो वैज्ञानिक लोग ही समझ सकते हैं किंतु वे अनुसंधान जनता की अपेक्षाओं पर कितने खरे उतरते हैं उसका आकलन भुक्त भोगी जनता ही कर सकती है | आधुनिक विज्ञान तो प्रत्यक्ष के आधार पर चलता है जनता भी प्रत्यक्ष को ही  प्रमाण मानती है | ऐसी परिस्थिति में प्राकृतिक विषयों में वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियाँ प्रत्यक्ष पारदर्शी एवं स्पष्ट हों और उनके सही गलत निकलने का निर्णय  जनता को ही करने दिया जाए !ऐसे अनुसंधान यदि जनता की कसौटी पर खरे उतरते हैं तब तो ठीक है अन्यथा संपूर्ण अनुसंधान पद्धति पर पुनर्बिचार की आवश्यकता समझी जानी चाहिए |
    प्राचीन काल में राजा लोग यही करते थे सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं या मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में जिस  विद्वान के द्वारा लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि जितने प्रतिशत सही निकलते थे उसे उतना सक्षम भविष्यवक्ता मान लिया जाता था | जिसके द्वारा लगाए गए पूर्वानुमान सबसे अधिक सही निकलते थे उसे राज ज्योतिषी जैसी उपाधि तब तक के लिए प्रदान कर दी जाती थी जब तक कि कोई दूसरा भविष्यवक्ता विद्वान उस राज ज्योतिषी से अधिक योग्य नहीं मिल जाता था | इस प्रक्रिया से प्रत्येक भविष्यवक्ता को हमेंशा हर भविष्यवाणी के लिए पहले की अपेक्षा अधिक सतर्क रहना होता था | 
     प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में शिक्षा के बल पर कोई व्यक्ति विशिष्ट पद प्रतिष्ठा तो हासिल कर सकता है किंतु जनअपेक्षाओं पर खरा उतरने के   लिए उसे अपनी शिक्षा का सही एवं सफल  प्रयोग करके भी दिखाना ही होता था |सिद्धांततः  किसी के मौसम वैज्ञानिक होने की डिग्रियाँ वो सरकारी तंत्र ढोवे जिसने प्रदान की हों ,जनता दृष्टि में तो कोई भी व्यक्ति मौसम वैज्ञानिक कहलाने का अधिकारी तभी होगा जब उसके द्वारा लगाए जाने वाले मौसम संबंधी पूर्वानुमान जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरते हों | जो जनता की कसौटी पर खरे उतरें जनता के खून पसीने की कमाई उन्हीं लोगों  के द्वारा किए जाने वाले अनुसंधानों पर खर्च की जानी चाहिए | हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि जो अपनी शिक्षा से समाज को सुख सुविधा पहुँचाने और प्राकृतिक संकटों से बचाने में प्रामाणिक रूप से कोई योगदान कर पा रहे हों |मूल्याँकन करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए |
     मौसम भूकंप एवं पर्यावरण के क्षेत्र में जो वैज्ञानिक लोग अनुसंधान पूर्वक भविष्यवाणियाँ करते हैं वही लोग उन भविष्यवाणियों को सही गलत सिद्ध कर लेते हैं | वही वैज्ञानिक सही निकलने  वाली भविष्यवाणियों के लिए अपने अनुसंधानों को श्रेय दे लेते हैं और गलत के लिए जलवायु परिवर्तन को दोषी बता देते हैं ,जबकि यह प्रक्रिया उचित नहीं है कि जो विद्यार्थी परीक्षा दे वही कॉपी जाँच ले वही मूल्याङ्कन कर ले और वही परीक्षा के परिणाम घोषित कर ले | 
    इसलिए मौसम वैज्ञानिक ,भूकंप वैज्ञानिक, पर्यावरण वैज्ञानिक आदि लोग अपने अपने क्षेत्रों से संबंधित प्रकृति के स्वभाव को समझने में न केवल सक्षम हों अपितु उनके विषय में जो अनुमान पूर्वानुमान आदि जो भी लगावें !उनका परीक्षण या मूल्याँकन जनता को अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति के आधार पर करने दिया जाए कि ये कितने प्रतिशत सच निकलें हैं और यदि ये अनुसंधान न हुए होते तो ऐसी कौन सी हितकर बात है जो  पता न लग पाती   | जिससे जनधन का नुक्सान और अधिक हो जाता | इस प्रकार से जो  भविष्यवाणी जनता की दृष्टि में भी सही निकलते दिखे उसी की   वैज्ञानिकता विश्वसनीय मानी जा सकती है !   
 
                               पूर्वानुमानों  के गलत निकलने से होता है नुक्सान 
      वैज्ञानिकों के द्वारा पहले से लगाए गए पूर्वानुमान गलत निकल जाने पर पहले से करके रखी गई भारी भरकम तैयारियाँ बेकार हो जाती हैं |महामारी की तीसरी लहर के समय ऐसा ही हुआ था | पहले से कुछ ऐसी डरावनी भविष्यवाणियाँ कर दी गईं थीं| उसी के अनुसार बचाव के लिए आवश्यक तैयारियाँ करके रख ली गईं ,किंतु तीसरी लहर उतनी हिंसक नहीं हुई | जिससे उन तैयारियों की आवश्यकता ही नहीं पड़ी |यदि तैयारियाँ करके नहीं रखी गई होतीं और महामारी घातक रूप ले लेती तो बचाव के लिए तुरंत इंतिजाम किए जाने संभव भी नहीं होते | 
    कोरोना महामारी के विषय में ही विश्ववैज्ञानिकों के द्वारा सही पूर्वानुमान नहीं पता लगाए जा सके हैं,जो लगाए जाते रहे वे निरंतर गलत निकलते रहे हैं | 
    भूकंप  बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान जैसी सभीप्रकार की हिंसक प्राकृतिक घटनाओं के समय जनता की मदद हेतु अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जाते हैं |यदि वे गलत निकल जाते हैं तो सोचना पड़ता है कि ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों की उपयोगिता कुछ है भी या नहीं ये स्वयं में अनुसंधान का विषय है| इस दुविधापूर्ण स्थिति को यूँ ही लंबे समय तक घसीटा जाना भविष्य के लिए हितकर नहीं है|
     ऐसी आपदाओं के विषय में वैज्ञानिक लोग अनुसंधान तो निरंतर किया ही करते हैं जिनसे महामारी के विषय में न तो कोई अनुमान आदि नहीं लगाए जा सके हैं  न ही कोई पूर्वानुमान ! यहाँ तक कि महामारी के विषय में ऐसी  कोई भी जानकारी नहीं जुटाई जा सकी जिससे महामारी से जूझती जनता को थोड़ी भी मदद पहुँचाई जा सकी हो | महामारी जैसी  इतनी बड़ी आपदा में हुई जनधन हानि के लिए वे वैज्ञानिक अनुसंधान कम दोषी नहीं हैं जो इसकी आहट  का अंदाजा लगाने में लगातार असफल  होते देखे गए हैं |जनता को विश्वास था कि हमारे वैज्ञानिक हमेंशा की तरह महामारी से भी हमारी सुरक्षा कर लेंगे किंतु वे ऐसा कर नहीं पाए ये चिंता की बात है |विशेष बात यह है कि इसके लिए यह उत्तर पर्याप्त नहीं है कि विश्व के अन्य देशों में भी  महामारी के विषय में ऐसा कोई शोध नहीं किया जा सका है | 
 
     महामारी के पीड़ा झेलने के बाद अब समाज जानना चाहता है कि ऐसा विज्ञान कौन सा है जिससे महामारी को समझा  जाना संभव हो सकता है | पूर्वानुमान लगाने के लिए यदि विज्ञान ही नहीं है तो वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर किया क्या जाता है | यदि विज्ञान  भी है वैज्ञानिक अनुसंधान भी होते हैं और वैज्ञानिकों की योग्यता में भी कमी  नहीं है ,तो ऐसी घटनाओं के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने में कठिनाई ही क्या है ?यदि ऐसा कोई विज्ञान ही  नहीं है तो प्रायः गलत निकल जाने वाले पूर्वानुमान लगाए किस आधार पर जा रहे हैं |सही अनुमान पूर्वानुमान आदि पता लगे बिना ऐसी महामारियों से जूझती जनता को कोई मदद पहुँचाना संभव हो कैसे सकता है | 
 
   वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए अनुमानों पूर्वानुमानों के गलत निकल जाने के लिए मात्र जलवायुपरिवर्तन या महामारी के स्वरूप परिवर्तन को जिम्मेदार ठहरा देने से जनहित के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो  जाती है | इतनी बड़ी असफलता के लिए जिम्मेदारों का यह  उत्तर  पर्याप्त नहीं माना जा सकता है  |
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 


                                                   
महामारीविज्ञान एक खोज !
                                      
                                                               दो शब्द !
      संपूर्ण कोरोना काल में  महामारी से बचाव के लिए वैज्ञानिक लोग दिन रात लगे रहे |महामारी पीड़ितों मदद करने के लिए अनेकों प्रयत्न करते रहे,एक से एक  नए प्रयोग प्रस्तुत करते रहे ,समय समय पर महामारी विषयक  अनुमान पूर्वानुमान भी लगाते बताते रहे | ऐसी सभी बातों को देख सुन कर लगता है कि महामारी पीड़ित समाज को मदद पहुँचाने के लिए वैज्ञानिकों ने बहुत परिश्रम किया है | इसमें कोई संशय भी नहीं है |
     वैज्ञानिकलोग अपने वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा महामारी पीड़ितों की मदद के उद्देश्य से  कर सके वो तो  ठीक है कि उन्होंने जनता की मदद करने का प्रयत्न किया है,किंतु उससे जनता को मदद मिली कितनी इस पर भी चिंतन किया जाना इसलिए भी आवश्यक है कि जिस जनता की मदद की गई  है उसे भी तो लगना चाहिए कि वैज्ञानिकों के प्रयासों से हमें कुछ ऐसी मदद मिली है जो उनके  सहयोग के बिना संभव न था | वैज्ञानिकों के द्वारा यदि अनुसंधान  न किए गए होते  तो महामारी संकट से हमें और अधिक जूझना पड़ता !जिससे हमारा इससे भी  नुक्सान हो सकता था | महामारीकाल में वैज्ञानिकों के द्वारा पहुँचाई गई मदद से प्राप्त परिणामों का परीक्षण इसी कसौटी पर कसकर किया जाना चाहिए | 
      अनुसंधानों से  जनता को कुछ ऐसी मदद मिली हो तब तो सार्थक और नहीं मिली  तो इतने बड़े संकट से निपटने के लिए समाज एवं सरकारों के द्वारा कुछ तो ऐसे विकल्प तैयार करने  ही होंगे जो समाज की मदद करने में कुछ तो सहायक हों | जिनसे जनता को  थोड़ी बहुत तो मदद तो मिलनी ही चाहिए  | 
       लोकतांत्रिक देशों में जनता के द्वारा टैक्स रूप में  दिए गए धन का कुछ अंश ऐसे अनुसंधानों पर भी खर्च किया जाता होगा | उसके बदले में  जनता को भी कुछ तो ऐसा मिलना चाहिए  जिससे उस धन की सार्थकता सिद्ध हो सके | पाई पाई और पल पल का हिसाब देने के पवित्र संकल्प से बँधी सरकारों की जिम्मेदारी तब  और अधिक जाती है जब उन्हीं  के  तत्वावधान में ऐसे कार्यक्रमों का संयोजन किया  जा रहा हो | जनता के द्वारा टैक्स सरकारों को दिया जाता है वैज्ञानिकों के द्वारा सरकारों के तत्वावधान में अनुसंधान किया जाता है | सरकारें जिस तत्परता से कठोरता पूर्वक जनता से करापहरण करती हैं वह तत्परता वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम प्राप्त करने के लिए भी दिखाई देनी चाहिए | 

                                                            सबसे चिंता की बात
     कोरोनाकाल में विभिन्नवैज्ञानिकों के द्वारा बार बार कहा जाता रहा है कि महामारियों के पैदा होने का कारण प्राकृतिक हो सकता है किंतु इसका निर्णय किया जाना अभी तक संभव नहीं हो  सका है कि कोरोना महामारी  प्राकृतिक है या मनुष्यकृत ! बताया जाता है कि प्रकृति के बनते बिगड़ते स्वभाव को परिवर्तित प्राकृतिक चिन्हों  से ही पहचाना जा सकता है जो मौसमसंबंधी परिवर्तनों के स्वरूप में  ही देखा जाता है |  इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर महामारीसंबंधी संभावितपरिवर्तनों के विषय में सही सही पूर्वानुमान लगाया जा सकता है | जिससे महामारीपीड़ित समुदाय की सुरक्षा के लिए आगे से आगे तैयारियाँ करके रखी जा सकती हैं |
      प्रकृति के स्वभाव को समझने लायक कोई मौसम संबंधी विज्ञान न होने के कारण अभी तक न तो मौसम संबंधी घटनाओं  के विषय में कोई सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव हो पाया है और न ही  महामारी के विषय में कोई बात पता लगाई जा सकी है |महामारी का विस्तार कितना है ? इसका प्रसार  माध्यम क्या है? इसमें अंतर्गम्यता कितनी है ? संक्रामकता कितनी है ?इसपर तापमान या  वायु  प्रदूषण घटने बढ़ने का प्रभाव पड़ता है या नहीं आदि के विषय में वास्तविक जानकारी का अभाव रहा है |महामारी प्राकृतिक है या नहीं यह पता लगाने के लिए भी तो मौसमसंबंधी परिवर्तनों का सही संभावित अनुमान एवं दीर्घावधि पूर्वानुमान पता होना आवश्यक है | 
      मौसमसंबंधी विज्ञान एवं वैज्ञानिक अनुसंधानों के अभाव में न तो मौसम के विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सका है और न ही महामारी में ! कुछ तीर तुक्कों के अलावा सारे वैज्ञानिक अनुसंधान मौसम एवं महामारी के विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाने की दृष्टि से अभीतक खाली हाथ हैं |ऐसी स्थिति में यह कैसे पता लगाया जाए कि कोरोना महामारी  प्राकृतिक है या नहीं | 
      उपग्रहों रडारों की मदद से बादलों या आँधी तूफानों को देखकर उनकी गति और दिशा के आधार पर यह तो अंदाजा लगाया जाता है कि ये कब कहाँ पहुँच सकते हैं किंतु यह विज्ञान नहीं है अपितु यह तो मात्र एक जुगाड़ है |ऐसे जुगाड़ों के आधार पर प्रकृति के स्वभाव को समझना संभव नहीं है और प्रकृति का स्वभाव समझे बिना  महामारी के पैदा या समाप्त होने में अथवा महामारी का वेग घटने बढ़ने में मौसम की कोई भूमिका है भी या नहीं इसके विषय में कोई सही अनुमान लगाना संभव ही नहीं है | 
      वैसे भी उपग्रहों रडारों की मदद से केवल बादलों या आँधी तूफानों को ही देखा जा सकता है |इन्हीं के विषय में कुछ तीर तुक्के बैठाए जा सकते हैं जबकि महामारी संबंधी अध्ययनों के लिए प्रकृति के संपूर्ण स्वरूप परिवर्तनों के विषय में अनुसंधान करना होगा उनके कारण खोजने होंगे उनके विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने होंगे तभी ऐसे प्राकृतिक अनुसंधान महामारी संबंधी अध्ययनों के लिए उपयोगी हो सकते हैं | 
   महामारियाँ प्राकृतिक होती हैं या नहीं यह समझने के लिए समग्र प्राकृतिक परिवर्तनों को अपने अनुसंधानों में सम्मिलित करना होगा | भूकंप  बाढ़ बज्रपात जैसी घटनाओं के विषय में एवं वायु प्रदूषण के विषय में यदि कोई वास्तविक अनुमान लगाना संभव ही नहीं है तो महामारी पर ऐसी प्राकृतिक घटनाओं का प्रभाव कैसा पड़ता है | इसका अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है |  
   वैज्ञानिक अनुसंधानों का उद्देश्य केवल उपग्रहों रडारों की मदद से प्राकृतिक घटनाओं को देखते रहना ही तो विज्ञान नहीं  है अपितु इनके घटित होने के आधारभूत कारण खोजे जाने चाहिए |वही कारण महामारी संबंधी अनुसंधानों की दृष्टि से मददगार सिद्ध हो सकते हैं | इसके बिना महामारी प्राकृतिक है या नहीं यह पता लगाया जाना संभव ही  नहीं है | हमारे अनुसंधानों के अनुशार मौसम संबंधी अनुसंधानों की असफलता के कारण ही महामारी के विषय में कोई भी प्रमाणित जानकारी नहीं जुटाई जा सकी है और न ही यह पता लगाया जा सका है कि महामारी  प्राकृतिक है या नहीं |
    मैं पिछले लगभग तीस वर्षों से प्राचीन विज्ञान के आधार पर अनुसंधान पूर्वक मौसम एवं संबंधी पूर्वानुमान लगाता आ रहा हूँ |जो लगभग सही निकलते देखे जा रहे  हैं | जो वैज्ञानिक अनुसंधानों  के लिए सहायक सकते हैं | यह अनुभव करते हुए भी मैं वृहद् संसाधनों के अभाव में इन अनुसंधानों को और अधिक बढ़ाने तथा उस मंच तक पहुँचाने में असमर्थ हूँ | जिनके पास ऐसा करने की जिम्मेदारी है वे इसका लाभ जनता को इसलिए नहीं मिलने देना चाहते हैं, क्योंकि यह कार्य उन्हें करना था |

    मौसमसंबंधी इन्हीं पूर्वानुमानों के आधार पर कोरोना महामारी के विषय में अभी तक मैंने जो भी पूर्वानुमान लगाए हैं उसके आधार पर मेरा विश्वास है कि यह जानकारी महामारीसंबंधी अनुसंधानों के लिए एवं महामारी पीड़ितों के बचाव एवं सुरक्षा हेतु विशेष लाभप्रद हो सकती है | 

                                                                    भूमिका
                                महामारी से निपटने में वैज्ञानिक अनुसंधानों की भूमिका क्या है !

    भारत ने दुश्मन देशों से निपटने के लिए तो सुरक्षा संबंधी भारी भरकम तैयारियाँ की जा चुकी हैं किंतु जनधन की इतनी बड़ी हानि करने वाली महामारी से सुरक्षा संबंधी तैयारियाँ बिल्कुल नगण्य हैं, जबकि भारतवर्ष ने चीन के साथ एक और पाकिस्तान के साथ दो युद्ध लड़े उन सब में जितने भारतीयों की  मृत्यु हुई थी उससे कई गुना अधिक लोग अकेले कोरोना महामारी में मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं |कोरोना महामारी जैसी इतनी बड़ी बिपदा जनता पर आ पड़ी किंतु बचाव के लिए अभी तक कुछ भी नहीं है | 
        जिन वैज्ञानिक अनुसंधानों पर  समाज का इतना बड़ा भरोसा था कि लोग  निश्चिंत भावना से जिए जा रहे थे ,अचानक आई कोरोना महामारी ने समाज का वह गुमान तोड़ दिया |महामारी से निपटने की वैज्ञानिक तैयारियों के नाम पर  अभी तक  ऐसा कुछ भी तो नहीं किया जा सका है ?यहाँ तक महामारी को ठीक ठीक प्रकार से समझना भी संभव नहीं हो पाया है | किसी भी रोग की प्रकृति पता लगे बिना न तो उससे बचाव के उपाय किए जा सकते  हैं और न ही उसकी चिकित्सा की जा सकती है | 
    ऐसी परिस्थिति में समाज अब इस भय के साए में जीने के लिए मजबूर है कि न जाने कोरोना जैसी कोई दूसरी महामारी कब आ जाए और वह बहुसंख्य लोगों को अचानक संक्रमित करने लगे, लोग  मृत्यु को प्राप्त होने लगें !उसमें न जाने किस किस को अपनी एवं अपनों की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु जैसी पीड़ा सहनी पड़े |न जाने कितनी जिंदगियाँ उजड़ जाएँ, कितने परिवार व्यापार आदि चौपट हो जाएँ !उसके बाद महामारी का ऐसा तांडव कितने वर्षों तक चलता रहेगा !किसी को पता नहीं है | ये सब कुछ चाहें जब तक चलता रहे !उसे जानने समझने,उससे बचाव करने एवं मुक्ति पाने के लिए कोई उपाय भी तो नहीं है | 
   इतने बड़े संकट के समय किसी भी प्रकार की मदद की अपेक्षा कम से कम वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधानों से तो नहीं ही की जानी चाहिए | इस सदमे को लोग न कह पा रहे हैं और न ही सह पा रहे हैं  न खुलकर काम कर पा रहे हैं |  स्वास्थ्य के क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसंधानों के भरोसे निश्चिंत जीवन जीने वाले समाज का कोरोना महामारी ने पहली बार विश्वास तोड़ा है | इसी सदमें में महामारी से डरे सहमे निराश हताश भयभीत लोग युवा अवस्था में ही गंभीर हृदयरोगों के  शिकार होते देखे जा रहे हैं |एक से एक स्वस्थ सुरक्षित माने जाने वाले युवा चलते फिरते हँसते खेलते नाचते कूदते हृदयघात के शिकार हो रहे हैं | कोरोना के भय से बिना किसी रोग के न जाने कितने लोग मृत्यु का शिकार हो चुके हैं | हार्ट अटैक की घटनाएँ बड़ी मात्रा में  घटित होते देखी जा रही हैं |किसी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि ऐसा क्यों हो रहा है और ये कैसे रुकेगा | क्या यही हमारी वैज्ञानिक उपलब्धि है |इसी बलपर क्या अत्याधुनिक लोग भारत के परंपरा विज्ञान को अंधविश्वास बताते देखे जाते हैं | 
     इतनी बड़ी विपदा के विषय में अनुसंधानों की जिम्मेदारी सँभाल रहे वैज्ञानिक लोग मनमाने तीर तुक्के लगाते देखे जा रहे हैं |सिद्धांततः महामारियों के विषय में जो वैज्ञानिक लोग हमेंशा अनुसंधान किया करते हैं यदि उन अनुसंधानों से महामारी आने के विषय में पहले से कोई अनुमान पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका ,न ही प्रभावी उपाय खोजे जा सके, न किसी प्रभावी औषधि का निर्माण किया जा सका, तो ऐसे अनुसंधानों की जनहित में उपयोगिता ही क्या बचती है |
      इसलिए अब समाज के भरोसे को एक बार फिर से मजबूत करना होगा | स्वास्थ्य सुरक्षा प्रबंधन सुधारने होंगे ताकि समाज का टूटा हुआ मनोबल एक बार फिर मजबूत किया जा सके जिससे समाज निश्चिंत भावना से जीवन जीना फिर से शुरू कर सके |

                                                                 भूमिका
      कोरोना जैसी महामारियों एवं भूकंप बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा अनुसंधान करवाए जाने का उद्देश्य जन धन की सुरक्षा करना होता है ! उस उद्देश्य की आपूर्ति ऐसे अनुसंधानों से कितनी होती है या हो सकती है |इस पर बिचार किए जाने  की आवश्यकता है |   
   ऐसी कोई समीक्षा भी करते समय यह याद रखा जाना चाहिए कि महामारी की त्रासदी में बहुतों को अपने बहुमूल्य जीवन खोने पड़े हैं तो बहुतों ने अपनों को खोया है | समाज अभी उस पीड़ा से पूरी तरह से उबरा नहीं है |महामारी ने इतने बड़े बड़े घाव दिए हैं जिन्हें भूल पाना जीवन में शायद ही कभी संभव हो पावे | 
   बहुत दुःख के साथ यह लिखना पड़ रहा है कि महामारी से संक्रमित होने एवं मृत्यु को प्राप्त होने वाले ये वही  लोग हैं जो अपनी स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकारों को आगे से आगे टैक्स दिया करते हैं |इसी उद्देश्य से कि  हमारा धन ऐसे कार्यों या अनुसंधानों में लगाया जाएगा जिससे भूकंप बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं समेत समस्त संकटों से हमें कम से कम जूझना पड़ेगा |हमारी कठिनाइयाँ कुछ कम होंगी |  महामारियों से मुक्त समाज संरचना के पवित्र उद्देश्य को पूरा किया जा सकेगा किंतु इसमें सफलता कितनी मिली है यह चिंतन का विषय है | समाज का हित चाहने वाले ईमानदार शासकों प्रशासकों समेत समस्त समाज साधकों को यह गंभीरता पूर्वक सोचना चाहिए कि महामारियों एवं भूकंप बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान जैसी सभीप्रकार की हिंसक प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधानों पर भारी भरकम धनराशि भी खर्च की जाती रही है |उन अनुसंधानों से ऐसा क्या कुछ निकल पाता  है जो प्राकृतिक आपदाओं से जूझती जनता  को मदद पहुँचाने में सहायक हो ?आखिर इसकी समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिए |
    हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे अनुसंधानों पर खर्च होने वाला आर्थिक भार जनता बहन करती है | ये उसकी अपनी गाढ़े खून पसीने की पवित्र कमाई होती है |जिसका सार्थक कार्यों में व्यय हो ये जनभावना है |इसलिए जनता का धन जिन अनुसंधानों पर भी  खर्च किया जाए उसकी सार्थकता सिद्ध करना सरकारों की  जिम्मेदारी बनती है | उससे जनता को कुछ मदद तो मिलनी ही चाहिए यही उसकी सार्थकता है |ऐसे में पाई पाई और पल पल का हिसाब देने की पवित्र संकल्पव्रती सरकारों की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि वे ऐसे प्रकरणों में प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित समाज के दुःख दर्द को अपना समझते हुए जनता की दृष्टि से प्राकृतिक आपदाओं एवं उनसे संबंधी अनुसंधानों से मिलने वाली मदद के विषय  गंभीरता से चिंतन करें |
    कोरोना जैसी महामारियों एवं भूकंप बाढ़ बज्रपात आँधीतूफान जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं  के आने की सूचना यदि  वैज्ञानिकों को भी तभी पता लग पाएगी जब बड़ी संख्या में लोग अचानक संक्रमित होने एवं मृत्यु को प्राप्त होने लगेंगे तो उस समय उन्हें इतना समय  कैसे मिल पाएगा कि वे महामारी के विषय में अनुसंधान कर लें ,उसका स्वभाव समझ लें ,उसके अनुशार बचाव के लिए प्रभावी उपाय भी बतावें एवं प्रभावी औषधियों का निर्माण भी कर लें एवं  उसे जन जन को उपलब्ध भी करवा दिया जाए |औषधि निर्माण के लिए उपयोगी आवश्यक द्रव्यों का इतनी बड़ी मात्रा में संग्रह भी कर  लिया जाए | 
   बिचार करते समय ध्यान इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि ऐसी सभी प्राकृतिक आपदाओं के समय में जो नुक्सान होना होता है वो तो प्रायः पहले झटके में ही हो जाता है |उसके तुरंत बाद राहत और बचाव कार्य शुरू कर दिया जाता है | इस संपूर्ण प्रक्रिया  में वैज्ञानिक अनुसंधानों की भूमिका ही क्या बचती है | ऐसे प्रकरणों में समाज की मदद अचानक  कैसे  सकती है ,वह भी तब जब मदद के लिए पहले से कोई तैयारी करके रखी ही न जा सकी हो |ऐसा किया जाना तब तक संभव नहीं होता है जब तक ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि पहले से  लगाना संभव न हो | 
 
                              महामारी भयंकर है  या फिर है तैयारियों का अभाव !
 
    महामारी के समय इतनी अधिक जनधन की हानि होने का कारण क्या है ! एक ओर महामारी का इतना भयंकर हमला दूसरी ओर तैयारियों का अभाव रहा है |ऐसी स्थिति में ये कैसे समझा जाए कि महामारी इतनी भयानक थी !हो सकता है कि बचाव की तैयारियाँ न होने के कारण महामारी का स्वरूप विकराल होता चला गया हो !
    इसलिए महामारी की भयंकरता के लिए केवल महामारी  को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है अपितु  महामारी से बचाव करने की जिम्मेदारी तो  हम मनुष्यों की ही थी | महामारी से जन धन की हानि न हो या कम से कम हो ऐसे उपाय करने की जिम्मेदारी महामारी की नहीं थी |अपनी जिम्मेदारियाँ भी महामारी पर डालकर अपने को पाक साफ सिद्ध कर लेने की इतनी जल्दबाजी क्यों है ?
   वैसे भी जलवायुपरिवर्तन जैसा कोई काल्पनिक नाम देकर प्राकृतिक घटनाओं को दोषी भले ठहरा लिया जाए किंतु इससे उन घटनाओं का हम बिगाड़ भी क्या  सकते हैं |वे तो जैसी  हमें वैसी ही स्वीकार करनी पड़ेंगी उसी के अनुसार उनसे अपना बचाव करने के लिए उपाय खोजने पड़ेंगे |इसी उद्देश्य से तो वैज्ञानिकों को अनुसंधान करने के लिए जिम्मेदारी सौंपी  गई है |
    हम मौसम या महामारी के विषय में पूर्वानुमान न लगा पावें या हमारे द्वारा जो पूर्वानुमान लगाए जाएँ वे गलत निकल जाएँ तो मौसम के लिए जलवायुपरिवर्तन को एवं महामारी के लिए उसके स्वरूपपरिवर्तन को जिम्मेदार बताकर हम अपनी कमजोरियाँ छिपाने में भले सफल हो जाएँ किंतु इससे मौसम एवं महामारियों का नुक्सान तो होना नहीं है नुक्सान तो अपना ही होना है इसलिए  जलवायुपरिवर्तन और महामारी के  स्वरूपपरिवर्तनजैसे काल्पनिक किस्से कहानियों से बाहर निकलकर हमें हमारी जिम्मेदारी समझनी होंगी | इस सच्चाई को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही मानवता के हित  में होगा |
    ये आश्चर्य की बात है कि महामारी जैसी  इतनी बड़ी घटना के विषय में किसी को कुछ  पता ही नहीं है इसलिए उससे बचाव के लिए कोई तैयारियाँ की जानी संभव ही नहीं हैं | महामारी के विषय में कुछ पता भी  होता तो भी इतने कम समय में इतनी अधिक मात्रा में तैयारियाँ नहीं की जा सकती थीं | घटना घटित होते समय तैयारियाँ करने का समय ही नहीं  मिल पाता है , जबकि उस समय महामारी से जूझती जनता को मदद की आवश्यकता तुरंत होती है |
     कोरोना महामारी के समय में महामारी के विषय में वैज्ञानिक जो जो कुछ बताते रहे  उसमें से कुछ भी सही नहीं निकलता रहा  ! इसीलिए उन वैज्ञानिकों को अपनी कही हुई बातें बार बार बदलनी पड़ती रही हैं | उनके द्वारा लगाए गए महामारी विषयक अनुमान पूर्वानुमान आदि बार बार गलत निकलते रहे |
     जिन वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी आने के विषय में कोई  पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका ! महामारी की लहरों के आने और जाने के  विषय में कभी कोई ऐसे पूर्वानुमान नहीं लगाए जा  सके जो सही भी निकले हों ! एक आध बार नहीं अपितु  बार बार ऐसा ही होते देखा जा रहा था | कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए महामारी विषयक अनुमान पूर्वानुमान ही गलत निकले होते  बाक़ी कुछ वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान सही भी तो निकलते ,ऐसा भी नहीं हुआ है | जिन जिन वैज्ञानिकों के द्वारा जो जो अनुमान पूर्वानुमान जब जब लगाए जाते रहे वे सब के सब गलत ही निकलते रहे हैं | 
     इसप्रकार से विभिन्न वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए अनुमानों पूर्वानुमानों के बार बार गलत होने से यह स्पष्ट हो गया है कि महामारी के विषय में उन्हें कुछ पता नहीं है जो पता है वो सही नहीं है | यदि वो सही होता तब तो उसके आधार पर लगाए गए अनुमानों पूर्वानुमानों को भी सही निकलना चाहिए था किंतु ऐसा नहीं हुआ जबकि वही लोग दूसरों के लिए कोविड नियमों का निर्माण करते देखे जा रहे थे |महारोग की सही सही जानकारी किए बिना  बचाव  के लिए नियम कैसे बनाए जा सकते थे !औषधियों का निर्माण कैसे किया जा सकता था तथा  औषधियों के बिना चिकित्सा कैसे की जा सकती थी | 
     ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित बना हुआ है कि महामारी से हुई इतनी बड़ी जनधन की हानि का कारण महामारी की भयंकरता रही है या फिर  उन वैज्ञानिक तैयारियों का अभाव रहा है जिनके द्वारा महामारी पर अंकुश लगाया जाना संभव था !
      कुल मिलाकर महामारी पर अंकुश लगाने के लिए  वैज्ञानिकों के पास यदि कोई व्यवस्था ही नहीं थी तो इसका अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है कि महामारी भयंकरता के कारण इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हुई है |  संभव यह भी तो है कि महामारी की समझ के अभाव में चिकित्सा का उचित प्रबंध न होने के कारण इतनी अधिक जन धन की हानि हुई हो |
    वास्तविकता यदि यही है तो ऐसा प्रायः अनेकों रोगों में होता है जिनकी चिकित्सा समय से न की जाए तो वे  रोग भी भयंकर हो ही जाते हैं | इसका मतलब  यह भी तो हो सकता है कि महामारी से बचाव की प्रभावी तैयारियाँ यदि  पहले से करके रखी  गई होतीं तो उन तैयारियों के प्रभाव से शुरुआत में ही महामारी पर अंकुश लगा लिया जाता ! यदि शुरू में ही समय से सही चिकित्सा मिल जाए तो वे रोग अधिक नहीं बढ़ने पाते हैं | ऐसा  महामारीजनित रोगों में भी तो हो सकता है !यदि यह सच है तो इसका मतलब यह हुआ कि महामारी भयंकर होने के कारण उतना नुक्सान नहीं हुआ जितना कि महामारी विषयक जानकारी न होने के कारण उचित चिकित्सा  के अभाव में जनधन की हानि हुई है |
    कुलमिलाकर महामारी संबंधी अनुसंधानों के द्वारा ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचना अभी तक संभव नहीं हो पाया है जिससे यह पता किया जा सके कि कोरोना महामारी  भयानक है या फिर महामारी से निपटने के लिए पहले से कोई तैयारियाँ करके नहीं रखी गई थीं |इसलिए इतनी  अधिक जनधन की हानि हुई है |  
    
                                             
 
  
                                                                प्रारंभ 
               महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं में वैज्ञानिक अनुसंधानों की भूमिका क्या रही है ?
      महामारियाँ हों या भूकंप तथा बाढ़ हो या बज्रपात  या और भी आँधी तूफान जैसी जितनी भी हिंसक घटनाएँ घटित होती हैं इनके विषय में संबंधित वैज्ञानिकों के द्वारा न अनुमान पता लगाए जा पाते हैं और न ही पूर्वानुमान न इनके घटित होने के वास्तविक कारण और न ही उनके निवारण के वास्तविक उपाय कुछ भी पता तो नहीं लग पाता  है | 
    प्रत्येक घटना के घटित होने के लिए जिम्मेदार कोई न कोई प्रत्यक्ष कारण होता है उस प्रत्यक्ष कारण का आधारभूत एक अप्रत्यक्ष कारण भी होता है जिससे प्रत्यक्ष कारण को ऊर्जा मिल रही होती है वह उसी से प्रेरित हो रहा होता है उस अप्रत्यक्ष कारण को ही समय कहते हैं|समय की भूमिका प्रकृति और जीवन से संबंधित सभी घटनाओं के सफल एवं असफल होने में होती है |
     इस उदाहरण में सूर्य के उदय होने एवं कमल के खिलने जैसी दोनों घटनाएँ जिस समय विशेष पर घटित होती हैं | वास्तविकता जानने लिए उस समयविशेष  की खोज  की जानी चाहिए किंतु इस मुख्यबात की उपेक्षा करते हुए सूर्योदय होने पर कमल खिलने की कहानी गढ़ कर अनुसंधानों को आसान बनाने के नाम पर वास्तविकता को हमेंशा के लिए ढक दिया गया है | अब कमल के खिलने का प्रत्यक्ष कारण सूर्योदय को मान लिया गया है जबकि वास्तविक कारण समयविशेष है | 
    सूर्य बड़ा है कमल छोटा अतएव कमल खिलने के प्रभाव से सूर्योदय होना बुद्धिवादियों को तर्कसंगत लगा नहीं इसीलिए आलसियों ने बेचारे कमल के खिलने का कारण सूर्योदय होने को मान लिया है | यही उनका विज्ञान है जबकि इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है कि जिस दिन घनघोर घटाएँ घिरी होती हैं उस दिन सूर्य किरणों का लाभ किसी भी प्रकार से कमल को नहीं मिल पाता है फिर भी कमल सूर्योदय के समय ही खिल जाता है | इसका कारण जलवायु परिवर्तन या प्रकृति के स्वरूप परिवर्तन को बताकर अन्य विवादों की तरह ही इस  विवाद को भी शांत किया जा सकता है किंतु कमल के खिलने का संबंध सूर्योदय से न होकर अपितु उस समय से होता है जिसमें कमल खिलता है सच्चाई यही है | इसीलिए तो सूर्य की परवाह किए बगैर अपने समय पर ही कमल खिल जाता है |संयोगवश सूर्योदय होने एवं कमल के खिलने का समय एक ही होता है |इसलिए ये दोनों घटनाएँ एक साथ घटित होते दिखाई पड़ रही होती हैं |  इन दोनों घटनाओं का सूत्रधार समय जो अप्रत्यक्ष है वो  न दिखाई पड़ने के कारण  भ्रम वश सूर्योदय होने और कमल खिलने की घटना को भ्रमवश एक दूसरे से जोड़कर देखा जाने लगा है |
    ऐसी गलतियाँ  प्रकृति विषयक  वैज्ञानिक अनुसंधानों में बार बार देखी जाती  रही हैं | जो अनुसंधान अधूरे होने के कारण वास्तविकता से दूर हैं जिसके कारण विज्ञान के नाम पर कुछ का कुछ पढ़ाया समझाया जाता रहा है जो बाद में गलत निकल जाता है |  ज्वारभाटा की घटना हो या गुरुत्वाकर्षण या  वर्षा बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान भूकंप या महामारी  जैसी घटनाओं से  संबंधित अनुसंधान इसी प्रकार के पूर्वाग्रहों के शिकार हैं | इनके अप्रत्यक्ष कारणों का पता नहीं है केवल प्रत्यक्ष कारणों पर चर्चा की जा रही है जिनका अपना ही कोई ऐसा निजी आस्तित्व नहीं है कि वे अपने विषय में ही कोई निश्चित निर्णय करने की स्थिति में हों | ग्रहों का संचार या पृथ्वी की गति उनके अपने वश नहीं है जिस अप्रत्यक्ष कारण से इन्हें ऊर्जा मिल रही है उसी से इनका संचार संभव हो पा रहा है उसे समझे बिना इनसे संबंधित किसी भी गतिविधि को समझना कैसे संभव है |
     कुल मिलाकर वर्षा बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान भूकंप या महामारी  जैसी घटनाएँ जिस वर्ष के जिस महीने के जिस समय विशेष पर निर्मित होती हैं उस  समय में ऐसा क्या विशेष होता है जिसमें ऐसी घटनाएँ पैदा हो जाती हैं | हर वर्ष ऐसा क्यों नहीं होता हर महीने ऐसा क्यों नहीं होता और हर दिन तथा हर समय ऐसा क्यों नहीं होता ! उस समय विशेष पर ही ऐसा क्यों होता है | उस समय में ऐसी विशेषता क्या होती है ? वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा उससमय विशेष की वह विशेषता यदि खोज ली गई है तब तो विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि  समय में या प्रकृति में इस इस प्रकार का परिवर्तन आने का मतलब है  कि इस प्रकार की प्राकृतिक घटना का निर्माण हो सकता है| यह पता लगते ही उसीके आधार पर संबंधित घटना के विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है इसी हिसाब से जनधन की सुरक्षा के लिए आवश्यक तैयारियाँ करके रखी जा सकती हैं जो संभावित घटना से बचाव हेतु प्रभावी भूमिका निभा सकती हैं |
    इसके अतिरिक्त ऐसी घटनाओं के घटित होने के अनुकूल वह विशेष वातावरण उपलब्ध करवाने वाले समय विशेष को पहचाने बिना यह कैसे कहा जा सकता है कि किस प्रकार की घटना कब घटित हो सकती है | उस समय विशेष की सही सही पहचान हुए बिना यह कहा जाना संभव ही नहीं है कि धरती के अंदर की प्लेट्स आपस में टकराने से भूकंप आते हैं | ऐसा घटित होते प्रत्यक्ष रूप से किसी ने देखा नहीं है और जो प्रत्यक्ष नहीं है उसे सिद्धांततः विज्ञान नहीं माना जाता है |
     ऐसे प्रकरणों में धरती के अंदर की प्लेट्स हमेंशा तो टकराती नहीं  होंगी और जब टकराती हैं उनके टकराने का भी कोई कारण होता होगा उस कारण के घटित होने का भी कोई समय होता होगा !जिस समय के प्रभाव से उस प्रकार की परिस्थिति बनती होगी जिससे प्रेरित प्लेटें आपस में टकराती होंगी |उस समय विशेष को खोजे बिना उससे संबंधित अनुसंधान अधूरे ही रहेंगे | इसीलिए वैज्ञानिकों के द्वारा  महामारी  के विषय में लगाए गए कोई अनुमान पूर्वानुमान आदि सफल नहीं हुए हैं | यही स्थिति वर्षा बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान भूकंपआदि प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित अनुसंधानों  की है |
 
                                                                    प्रथम अध्याय 
 
                                                            दुःख तो होता है !       
       महामारी के विषय में जिस विज्ञान के आधार पर सदियों से अनुसंधान किए जाते रहे हैं उन अनुसंधानों पर जनता का धन खर्च किया जाता रहा है | उन अनुसंधानों के नाम पर होता क्या  रहा है महामारी आने पर उसकी  थी समाज स्वयं गवाही कि महामारी से जूझते लोगों को उन अनुसंधानों से ऐसी क्या मदद पहुँचाई जा सकी है जो इनके बिना संभव न  थी | जब उन अनुसंधानों की आवश्यकता पड़ी तो उन्हें उनके अनुसंधानों से कुछ पता ही नहीं लग पा रहा था कि महामारी क्या बला है इसका स्वभाव प्रभाव प्रसार विस्तार आदि कैसा है कितना है | लोग  संक्रमित होते और मृत्यु को  प्राप्त होते जा रहे थे अस्पतालों श्मशानों में जगह नहीं थी ,वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए जाते रहे महामारी विषयक अनुमान पूर्वानुमान आदि बार बार बार गलत होते जा रहे थे | इसका कारण बताते हुए वैज्ञानिकों के द्वारा अचानक कहा जाने लगा कि महामारी मौसम के कारण बढ़ रही है | महामारी पर घटते बढ़ते तापमान का प्रभाव पड़ रहा है | वर्षा का प्रभाव पड़ रहा है |इसलिए महामारी संबंधी अनुमान पूर्वानुमान आदि गलत निकलते जा रहे हैं | महामारी को समझने के लिए पहले मौसम को समझा जाना बहुत आवश्यक है |इसके बिना महामारी को समझना एवं उसके विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाना आदि संभव नहीं है | इसके लिए सरकार के द्वारा ऐसे अध्ययन के लिए एक कमेटी गठिति की जा रही है जिसमें आईएमडी को भी सम्मिलित किया जा रहा है |दोनों के द्वारा संयुक्त रूप में महामारी के विषय में अनुसंधान किया जाएगा ! 
   22 दिसंबर 2020 को (दृष्टि)प्रकाशित :पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ( एमओईएस) एक अनूठी प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली विकसित कर रहा है जिससे देश में बीमारी के प्रकोप की संभावना का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।  भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) भी विकास अध्ययन और प्रक्रिया में शामिल है।विकसित किया जा रहा मॉडल मौसम परिवर्तन और घटना के बीच संबंध पर आधारित है। कुछ बीमारियाँ ऐसी होती हैं जिनमें मौसम का पैटर्न महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।जिसमें  तापमान और वर्षा पैटर्न के आधार पर भविष्यवाणी कर सकते हैं कि क्या किसी क्षेत्र में काफी उचित सटीकता के साथ प्रकोप होने की संभावना है |
   इस  प्रकरण में विशेष ध्यान दिए जाने वाली बात यह है कि ऐसा उस समय बिचार किया जा  रहा था जब महामारी से लाखों लोग संक्रमित होते एवं मरते देखे जा रहे थे | ऐसे समय
जब   वैज्ञानिक अनुसंधानों से समाज को अधिक से अधिक मदद पाने की आवश्यकता थी | उस समय इस प्रकार की बातें की जा रही थीं |वैज्ञानिकों को क्या यह पहले से पता नहीं होना चाहिए था कि मौसम में अचानक और अस्वाभाविक रूप से आने वाले बदलाव विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म देते देखे जाते हैं | यदि पता था तो इसकी तैयारी पहले से करके रखे जाने की आवश्यकता क्यों नहीं  समझी गई  | 
     इस प्रक्रिया में विशेष बिचार किए जाने की बात एक और भी है कि इस महामारी के समय जिस प्रकार से मौसम संबंधी घटनाओं को जिम्मेदार बता दिया गया है |इसके बाद भी इतने से ही काम  नहीं चलेगा ! इसके बाद  अगली महामारी के समय मौसम संबंधी अनुसंधानों को दोष दिया जाएगा, क्योंकि  मौसम विज्ञान के नाम  पर ऐसा कोई सक्षम विज्ञान ही नहीं है, जिसके आधार पर महामारी के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सकेगा !जिस मौसमविज्ञान के आधार पर मौसमसंबंधी घटनाओं  विषय में ही अभी तक सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव नहीं हो पाया है उसी मौसमविज्ञानके आधार पर कही जा रही महामारी विषयक  अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने की बात कितनी विश्वसनीय हो सकती है |ऐसा ही करना होता तो मौसमी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना अब तक संभव बना लिया जाना चाहिए था !उपग्रहों रडारों की मदद से बादलों एवं आँधी तूफानों की जो जासूसी कर भी ली जाती है उसकी गति और दिशा के हिसाब से यह अंदाजा  लगा लिया जाता है कि ये बादल या ये आँधी तूफान आदि कब  कहाँ पहुँच सकते हैं |  यदि हवा ने धोखा नहीं दिया तो कई बार ये जुगाड़ फिट बैठ भी जाता है, किंतु यह मात्र एक जुगाड़ है विज्ञान नहीं है |इसके आधार पर महामारी को समझना संभव  नहीं है |महामारी को समझने के लिए प्रकृति के स्वभाव को समझा जाना नितांत आवश्यक है |
      इसीप्रकार से महामारी संबंधी संक्रमण बढ़ने के लिए वायुप्रदूषण बढ़ने को भी जिम्मेदार लेकिन वायुप्रदूषण बढ़ने का कारण क्या है ये अभीतक किसी को पता ही नहीं है |दशहरा आने पर रावण जलने को द्वाली आने पर पटाखा फोड़ने को, धान कटने पर पराली जलाने को ,गर्मी आने पर धूल उड़ने आदि को वायुप्रदूषण बढ़ने का कारण बता दिया जाता है | जब ऐसे कोई कारण न हों उस समय वाहन, उद्योग  एवं भवन निर्माण जैसी न जाने कितनी धूल धुआँ उड़ाने वाली घटनाओं को जिम्मेदार बता दिया जाता है | जिनका न तो कोई वैज्ञानिक आधार होता है और न ही इनके विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सका है |  इसके बिना महामारीपर पड़ने वाले इसके प्रभाव का आकलन कैसे किया जा सकेगा | 
    कुल मिलाकर महामारी पैदा होने के लिए इसके बार बार घटने बढ़ने या लहरों के आने जाने के लिए  वैज्ञानिक लोग कभी मौसम को जिम्मेदार ठहरा देते हैं|कभी वर्षा होने और न होने को जिम्मेदार बता देते हैं,कभी तापमान और वायुप्रदूषण को घटने बढ़ने को महामारी बढ़ने के लिए जिम्मेदार बता देते हैं |कभी कभी कोविड  नियमों के पालन करने और न करने को जिम्मेदार बता देते हैं | 
    इनमें से जिस किसी को भी महामारी पैदा होने या उसका संक्रमण बढ़ने घटने के लिए जिम्मेदार कारण माना जाएगा |वैज्ञानिक सिद्धांत से वो केवल कह देना ही प्रमाण नहीं मान लिया जाना चाहिए ,अपितु उस कारण का संबंधित घटना के साथ भी तो कोई संबंध सिद्ध होना चाहिए |महामारी से संबंधित वैज्ञानिक वक्तव्यों में इसप्रकार की तर्कपूर्ण पारदर्शिता नहीं बरती गई| जिसके कारण वैज्ञानिकों  के द्वारा लगाए जाते रहे इसप्रकार के अनुमान पूर्वानुमान आदि बार बार गलत निकलते रहे | ऐसा तब होता रहा जब जीवन की सबसे बड़ी विपदा रूपी महामारी से जूझती जनता वैज्ञानिकों की ओर अत्यंत आशाभरी दृष्टि से देखती रही होती थी | इतने गंभीर संकट के समय महामारी से जूझती जनता को बार बार निराश होना पड़ा है | 
      ऐसे गंभीर संकट के समय में जनता जिस किसी भी  प्रकार में जीवन जीने के लिए विवश थी ऐसे समय में उसे अपनी आवश्यकताओं से बार बार समझौते करने पड़ रहे थे | लोग बहुत मजबूरी में ही  घर से निकलना चाहते थे | उस समय उन पर कोई भी नियम थोपते समय इतनी सावधानी तो बरती ही जानी चाहिए थी कि उनका पहले परीक्षण अवश्य कर लिया जाता कि इनसे कोई प्रभाव पड़ता भी है या नहीं |उस वास्तविक कारण के घटने बढ़ने के विषय में पूर्वानुमान पता होना चाहिए तभी तो उसके आधार पर महामारी संबंधी अनुसंधान शुरू किए जा सकते थे | उसी के अनुशार अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सकता था |  
 
                                     महामारी का स्वरूप परिवर्तन बना रहस्य !  
     महामारी भयंकर थी उससे निपटने की पहले से कोई तैयारियाँ करके रखी नहीं जा सकी थीं | इसका कारण महामारी जैसी कोई घटना घटित होने वाली है इसके विषय में पहले से किसी को कोई आशंका तक नहीं थी | ऐसी स्थिति में कोई तैयारी पहले से करके कैसे रखी जा सकती थी | 
     ऐसी परिस्थिति में महामारी भयंकर थी या उससे निपटने की तैयारियों का अभाव था आखिर जनधन का इतना अधिक नुक्सान होने का वास्तविक कारण क्या रहा !ये स्वयं में अनुसंधान का विषय है |महामारी के समय ऐसा कहा जाता रहा है कि महामारी का स्वरूप परिवर्तन हो रहा रहा है |जो हो रहा है वो तो जनता भी देख रही है उसे ही देख देख कर बताने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान नहीं किए जाते अपितु जो हो रहा है उसके विषय में पहले से अनुमान पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सका !चिंता इसकी होनी चाहिए | 
    कई बार तो ऐसा भी सुनने को मिला कि महामारी के स्वरूप परिवर्तन के कारण  महामारी को समझना तथा इसके विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना उपाय खोजना औषधि निर्माण करना आदि संभव नहीं हो पा रहा है | 
    ऐसी बातों से यह ध्वनित होता है कि कहने वाला महामारी  को समझने में असमर्थ हैइसीलिए उसके द्वारा महामारी के  स्वरूप परिवर्तन का बहाना किया जा रहा है |किसी कार्य में असफल रहा कोई थका हारा निराश हताश व्यक्ति जब ये समझ लेता है कि यह कार्य हमारे बश का नहीं है उस समय वह सीधे तौर पर अपनी अयोग्यता, लापरवाही या पराजय आदि स्वीकार करने के बजाए परिस्थितियों सहयोगियों आदि को दोष देकर अपने को बचा लेना चाहता है | यदि ऐसा न हुआ होता तो मैं वैसा कर लेता ! सामने से अचानक गाड़ी न आ जाती तो एक्सीडेंट नहीं होता !भूकंप न आता तो घर नहीं गिरता !ऐसा जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है चुनौतियाँ हर क्षेत्र में होती हैं |इन चुनौतियों का सामना करते हुए ही सफलता हासिल करनी होती है यदि ऐसा न होता तो हर कोई वैज्ञानिक होता !
    इसलिए यह कहना कि महामारी का स्वरूपपरिवर्तन हुआ होता तो महामारी के विषय में सही अनुमानपूर्वानुमान आदि लगा लिए गए होते !ऐसे ही जलवायु परिवर्तन न होता तो मौसम संबंधी अनुमान पूर्वानुमान सही सही लगा लिए जाते आदि बातें वैज्ञानिक अनुसंधानों का अधूरापन सिद्ध करती हैं |
     वस्तुतः परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है इसीलिए तो  प्रत्येक व्यक्ति वस्तु स्थान आदि प्रकृति के छोटे बड़े प्रत्येक अंश में प्रतिपल परिवर्तन होते रहते हैं | जिन परिवर्तनों की प्रवृत्ति खोज ली जाती है और उनमें होने वाले संभावित परिवर्तनों के  विषय में सही सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाता है | उन परिवर्तनों को देखकर किसी को कभी कोई भ्रम नहीं होता है | सर्दी गर्मी वर्षा आदि ऋतुओं के नाम पर होने वाले वार्षिक परिवर्तन तथा दिनरात प्रातः सायं जैसे होने वाले अहोरात्रिक परिवर्तन एवं बचपन जवानी बुढ़ापा आदि शारीरिक परिवर्तनों को देखकर किसी को कभी महामारी के  स्वरूप परिवर्तन एवं जलवायु परिवर्तन  जैसा आश्चर्य नहीं होता है |इसका कारण ऐसे परिवर्तनों के प्रत्येक स्वरूप से लोग परिचित होते हैं |इसलिए एक स्वरूप देखकर दूसरे संभावित परिवर्तन के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया करते हैं |सर्दी को देखकर गर्मी और वर्षा के विषय में दिन को देखकर रात्रि के विषय में एवं बचपन को देखकर युवावस्था के विषय में अनुमान लगा लिया  जाता है | ये पता न होता तो परिवर्तन का भ्रम यहाँ भी होता |
    इनमें किसी एक स्वरूप की वास्तविक पहचान एवं परिवर्तन का क्रम पता होना बहुत आवश्यक माना जाता है | प्रातः दोपहर सायं ये क्रम पता हो इसके साथ ही प्रातः दोपहर सायं के लक्षणों की निश्चित पहचान हो तो भावी परिवर्तनों को पहचाना जा सकता है | दोपहर में सबसे अधिक प्रकाश एवं तापमान होता है | यदि ये लक्षण पता हैं तो न केवल दोपहर को पहचाना जा सकता है अपितु उसके क्रम को समझते हुए इस बात का पूर्वानुमान भी लगाया जा सकता है कि इसके बाद शाम होगी उसके बाद अगला सबेरा होगा !आदि आदि |
    वैज्ञानिकों के द्वारा जिसे महामारी का स्वरूप परिवर्तन कहा जाता है| यह विश्वसनीय तब होगा जब महामारी के  किसी एक स्वरूप की वास्तविक पहचान पता हो तथा उसके परिवर्तन का निश्चित क्रम पता हो | यदि ये दोनों बातें वैज्ञानिकों को पता ही होतीं तब तो महामारी के  परिवर्तनों के विषय में वे सही सही पूर्वानुमान लगा ही सकते थे किंतु उन्होंने जितने भी अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए उनमें से कोई सही नहीं निकले !इससे उनके द्वारा कही जा रही महामारी के स्वरूप परिवर्तन होने की बात विश्वनीय नहीं लगती है |
    प्रकृति के संचारक्रम को समझने वाले विद्वानलोग अच्छीप्रकार से जानते हैं कि प्रकृति में कोई घटना कभी अचानक नहीं घटित होती है सब सुनियोजित होती है ,सबका समय और क्रम निश्चित होता है |आवश्यकता उसे समझने वाले की होती है |  भूकंप आँधी तूफान वर्षा बाढ़ जैसी जो घटनाएँ हमें अचानक घटित हुई सी लगती हैं| वे भी अपने अपने निर्धारित समय से घटित हो रही होती हैं | इन प्राकृतिकपरिवर्तनों के समय और क्रम की पहचान न होने के कारण ऐसी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव नहीं हो पाया है |
   कुछ लोगों का कहना है कि सर्दी गर्मी वर्षा , दिन रात प्रातः सायं एवं बचपन जवानी बुढ़ापा आदि शारीरिक परिवर्तनों का क्रम निश्चित होता है | ये हमेंशा एक जैसे और एक ही क्रम में घटित होते हैं | इसलिए इनके विषय में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है किंतु भूकंप आँधी तूफान वर्षा बाढ़ जैसी जो घटनाओं के घटित होने का समय निश्चित नहीं है ये तो कभी भी घटित होने लगती हैं |इसलिए इनके विषय में पूर्वानुमान लगाना आसान नहीं होता है |
   इस दृष्टि से तो अलग अलग समय पर अलग अलग प्रकार से भिन्न भिन्न स्वरूपों में घटित होने वाले सूर्य चंद्र ग्रहणों का भी तो समय क्रम स्वरूप आदि अनिश्चित सा लगता है किंतु ये अनिश्चित होता नहीं है | यदि ये अनिश्चित होता तो इसके विषय में सैकड़ों हजारों वर्ष पहले पूर्वानुमान लगाना संभव न होता | अंतर इतना ही है कि इसके क्रम को समझ लिया गया है जबकि महामारी भूकंप आँधी तूफान वर्षा बाढ़ जैसी जो घटनाओं के क्रम ,स्वरूपों एवं संबंधित घटनाओं को समझा जाना अभी तक अवशेष है किंतु जिस गणितीय  प्रक्रिया से सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में पूर्वानुमान लगाया जाता है वही एक मात्र पद्धति है जिसके द्वारा महामारी भूकंप आँधी तूफान वर्षा बाढ़ जैसी घटनाओं के विषय में भी पूर्वानुमान लगाया जा सकता है |जिस प्रकार से उपग्रहों रडारों की मदद से सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है उसी प्रकार से  महामारी भूकंप बाढ़ बज्रपात जैसी घटनाओं के विषय में भी उपग्रहों रडारों की मदद से पूर्वानुमान लगाया जाना असंभव है |
    आकाश में आँधी तूफानों एवं बादलों को उपग्रहों रडारों की मदद से कुछ पहले देखा अवश्य जा सकता है वे जिस गति से जिस दिशा की ओर बढ़ रहे होते हैं उसके आधार पर ये कब कहाँ पहुँच सकते हैं इसके विषय में कुछ अंदाजा भी लगाया जा सकता है जो कभी कभी सही निकल भी सकता है किंतु यह पूर्वानुमान नहीं है और न ही इसमें विज्ञान का कोई उपयोग है यह मात्र एक जुगाड़ है |  
     एक बार किसी व्यक्ति के साथ ऐसा हुआ कि वह अपने स्कूटर से रेड लाइट पर संयोगवश तभी पहुँच पाया जब बत्ती हरी होने वाली एवं रास्ता खुलने वाला होता था ऐसा दो तीन बार हो गया !ऐसा देखकर भ्रम उसे लगने लगा हरी बत्ती जलने एवं रोड खुलने का कारण उसका उस स्थान पर पहुँचना है |  उसने इसे वैज्ञानिक सिद्धांत की तरह घोषित कर  दिया कि वह पहुँचेगा तो बत्ती हरी होगी अन्यथा नहीं | इसके बाद वह जब निकले तो लोग ध्यान देने लगे ,किंतु कई बार बत्ती हरी हो और कई बार न हो तो अन्य वाहनों के साथ उसे भी लाइन में खड़ा होना पड़े !लोगों ने उसी से इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि जब मेरे पहुँचने पर हरी बत्ती होकर रोड खुल जाता है वह तो वैज्ञानिक सिद्धांत है और जब ऐसा नहीं होता है वो जलवायुपरिवर्तन है |जो  हवाओं का रुख बदलते ही गलत निकल जाते हैं |वे सही निकल जाएँ तो ठीक और गलत निकल जाएँ तो जलवायु परिवर्तन !
      हमारी जानकारी के अनुसार उपग्रहों रडारों से देखने बताने के अतिरिक्त पूर्वानुमान लगाने के लिए और कोई वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया है नहीं | उसके बिना  भूकंपों  और महामारियों के विषय में तो उपग्रहों रडारों से भी पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है | आँधी तूफ़ान एवं बादलों को ढो कर इधर उधर ले जाने वाली हवाएँ कब किधर मुड़ जाएँ भरोसा नहीं होता !ऐसे में उपग्रहों रडारों से मिली जानकारी भी बहुत विश्वसनीय नहीं होती है|इसके आधार पर कोई योजना बनाना संभव नहीं होता है |  
   कुलमिलाकर जिन पूर्वानुमानों का कोई वैज्ञानिक आधार ही न हो वे गलत निकल  ही सकते हैं |गलती अपनी दोष  जलवायु परिवर्तन का ! मतलब साफ है कि हमने सही गलत जो कुछ भी समझा है उसे वैज्ञानिक अनुसंधान मानना ही होगा ! उसके आधार पर हम सही गलत जो कुछ भी बोले जा रहे हैं वो सही निकले तो विज्ञान और गलत निकले तो जलवायुपरिवर्तन मान ही लिया जाना चाहिए| महामारी का स्वरूप परिवर्तन भी इसी अवधारणा पर आधारित है |
     वैज्ञानिक सिद्धांत तो यह है कि जब हमें एक बार पता हो ही गया कि जलवायु परिवर्तन होने के कारण हमारे द्वारा लगाए गए मौसम संबंधी अनुमानों पूर्वानुमानों के सही निकलने की संभावना कम है तो  ऐसे संदिग्ध अनुमान पूर्वानुमान  आदि  समाज को बताए ही नहीं जाने चाहिए थे , जिनके गलत निकल जाने पर जलवायु परिवर्तन का बहाना खोजना पड़ता है  | ऐसी लापरवाहियों से वैज्ञानिक अनुसंधानों के प्रति समाज की  विश्वसनीयता कम होना स्वाभाविक ही है | 
      ऐसा ही महामारी के विषय में है | वैज्ञानिकों को जब यह पता ही था कि महामारी का स्वरूप परिवर्तन होने के कारण उनके द्वारा लगाए जाने वाले अनुमान पूर्वानुमान गलत निकलेंगे तो उन्हें ऐसे गलत अनुमान पूर्वानुमान बताकर विज्ञान के प्रति बने समाज के भरोसे को कम नहीं किया जाना चाहिए था |  कोरोना काल में ऐसे अनुमानों पूर्वानुमानों को बार बार गलत निकलते सारी दुनियाँ ने ही देखा है |उन पूर्वानुमानों का वैज्ञानिक आधार न होने  पर भी यदि वे सही निकल जाते तब तो उन्हें विज्ञान सम्मत मान ही लिया जाता किंतु वे तो गलत निकलते रहे इसके लिए महामारी के स्वरूप परिवर्तन को दोषी ठहराया जाता रहा |
     सच्चाई यही है कि हमने आज तक जिसे विज्ञान की तरह गले लगा रखा है उसके आधार पर अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव नहीं है तो इस कमजोरी को विनम्रता पूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए |इस एक कमजोरी को छिपाने के लिए न जाने कितने झूठ बोलने पड़ सकते हैं इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है |
                                    
                         
                                     
 
                                                         प्रथम अध्याय !
 
                                       भय तो मृत्यु का होता है न कि महामारी का !

    संसार में प्रत्येक प्राणी अपनी मृत्यु से डरता है | जिसे जो मार सकता है वो उससे डरने लगता है |चूँकि साँपों को काटने से अक्सर मृत्यु होते देखी जाती है इसलिए साँपों को  देखकर सभी को डर लगता है | जबकि कुछ साँप जहरीले नहीं भी होते हैं इसलिए उनके काटने से मृत्यु नहीं होती है |कोई भी मनुष्य जबतक ऐसे साँपों को पहचानता नहीं है तब तक उनसे भी डरा करता है और जब उन्हें पहचानने लगता है कि इनके काटने से मृत्यु का भय नहीं है तब से अन्य साँपों की अपेक्षा उनसे भय कम लगने लगता है |
      इसी प्रकार से जो साँप जहरीले भी होते हैं जिनके काटने से मृत्यु हो जाती है| उन साँपों के बिष को उतारने की ऐसी कोई औषधि जिस दिन खोज ली जाती है जिससे ऐसे साँपों के काटने के बाद भी उनका विष उतार कर मृत्यु का संकट टालने की ताकत हासिल कर ली जाती है | उस दिन से उन साँपों से भी भय कुछ कम लगने लगता है | 
    कुल मिलाकर मनुष्यकृत जिस किसी प्रयत्न के द्वारा मृत्यु का खतरा जितना अधिक टालना संभव हो पाता है उतना भय कम होता जाता है | सर्पजनित भय कम करने के लिए दो काम करने पड़े पहला तो साँपों की पहचान करनी पड़ी कि किन साँपों के काटने से मृत्यु का भय कितना है | दूसरा वे उपाय खोजने पड़े, वैसी औषधियाँ तैयार करनी पड़ीं जो बिषैले साँपों के काटने पर भी मृत्यु का भय घटाने में सक्षम थीं | वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा जिस दिन ये दोनों कार्य सफलता पूर्वक कर लिए जाते हैं उसी दिन साँपों से होने वाला भय पहले की अपेक्षा बहुत कम हो जाता है
   भय तो तभी तक लगता है जब तक  किसी संकट की वास्तविक पहचान पता नहीं होती है और जब तक उससे बचने के या निपटने के कारगर उपाय खोजे नहीं गए होते हैं, उसकी प्रभावी औषधियाँ पता नहीं होती हैं | इनके पता लगते ही भय आधा हो जाता है | किसी भी संकट को समझने की सामर्थ्य न हो उससे बचाव के उपाय न हों उससे मुक्ति दिलाने के संसाधन न हों तो उससे भय होता ही है उसका सामना करने की क्षमता न होने के कारण ही  उससे अधिक डर लगना स्वाभाविक है |  
   महामारी हो या प्राकृतिक आपदाएँ वे स्वयं में छोटी या बड़ी नहीं होती हैं | वस्तुतः जिन संकटों से निपटने की तैयारी जितनी अधिक अच्छी होती है वह संकट उतना ही छोटा लगने लगता है | जिससे निपटने की तैयारी जितनी कमजोर होती है | वह संकट भय के कारण उतना ही बड़ा एवं भयानक लगने लगता है | कोई बड़ा से बड़ा संकट भयंकर तभी तक लगता है जब तक उसे पराजित करने की सामर्थ्य न हासिल कर ली जाए |वही संकट जो एक समय भयानक लगा करता है उससे निपटने की सामर्थ्य हासिल होते ही वह सामान्य लगने लगता है |
   कुल मिलाकर  जिस संकट से अपना  बचाव सुनिश्चित कर लिया गया हो उससे उतना भय नहीं रह जाता है | कोई छोटा से छोटा संकट भी यदि बड़ा नुक्सान पहुँचा सकता है उससे बचाव के लिए बहुत अच्छी तैयारी नहीं है तो वह छोटा सा संकट भी भयवश बड़ा लगने लगता है |
    ऐसी परिस्थिति में  कोरोना महामारी के विषय में यदि बिचार किया जाए कि महामारी भयानक थी या महामारी के विषय में वैज्ञानिकों को कुछ पता न होने के कारण महामारी से बचाव के लिए कोई तैयारी नहीं की जा सकी थी |इसलिए महामारी के समय जन धन का इतना अधिक नुक्सान हुआ है |इसका वास्तविक कारण अभी के लिए नहीं तो भविष्य के लिए ही सही खोजा  तो जाना चाहिए |
    मध्यमस्तरीय युद्धों में जितनी जनधन हानि होते देखी जाती है उससे कई गुना अधिक जनधन  की हानि महामारी से हुई है |इसे यूँ ही भुला दिया जाना तो संभव नहीं ही है | 
  
      महामारी से निपटने की तैयारियाँ क्या हैं ?

    कोरोना  महामारी वास्तव में इतनी भयंकर है या महामारी से संबंधित जानकारी एवं तैयारियों के अभाव में भयवश महामारियों को इतना भयंकर मान लेना पड़ा है| ये प्रश्न मन में बार बार कौंधता है
     संसार का नियम ही है कि जो जिससे एक बार पराजित हो जाता है उसको लेकर डर तो हमेंशा के लिए  बैठ ही जाता है| इसलिए महामारी से पराजित वैश्विक समाज का भयभीत होना स्वाभाविक ही है |कोरोना जैसे महारोग से समाज इतना अधिक भयभीत इसीलिए हुआ क्योंकि महामारी के विषय में न कुछ बताया जा पा रहा था और न ही उससे निपटने के लिए कोई प्रभावी  तैयारी ही पहले से करके रखी गई थी ,आखिर रखी भी कैसे जाती जब किसी को यह  पता ही नहीं था कि इतनी बड़ी महामारी आने वाली है |  
    किसी भी रोग से मुक्ति दिलाने के लिए औषधि निर्माण करना हो या चिकित्सा करनी हो उसके लिए रोग को ठीक ठीक पहचाना जाना अनिवार्य माना जाता है| ऐसे ही महामारी से मुक्ति दिलाने की बात तो तब होती जब महामारी के स्वभाव प्रभाव लक्षणों आदि को पहचाना जा सका होता ! ठीक ठीक निदान हुए बिना महामारी से मुक्ति दिलाने वाली प्रभावी औषधियाँ कैसे तैयार की जा सकती हैं | 
    महामारी के  विषय में न तो कभी कोई सही सटीक अनुमान पूर्वानुमान आदि पता लगाना या जा सका और न ही उससे बचाव के लिए प्रभावी उपाय ही खोजे जा सके हैं |इतने बड़े संकट से निपटने के लिए पहले से क्या कोई तैयारियाँ करके नहीं रखी गई थीं |महामारी की चिकित्सा नहीं की जा सकी ये माना जा सकता है कि समय ही इतना कम था किंतु महामारी को समझा भी नहीं जा सकेगा ! इतनी आशा तो नहीं ही थी | 
    जिस विज्ञान पर इतना बड़ा गुमान था,उसकी तर्क संगत पारदर्शिता पर गर्व किया जाता है | वही आधुनिक विज्ञान महामारी के सामने इतनी आसानी से घुटने टेक देगा यह विश्वास न था | वेदों पुराणों में वर्णित या परंपरा से प्राप्त ज्ञान विज्ञान को आधुनिक चिंतकों के द्वारा अंध विश्वास कह दिया जाता है |  
     इतनी बड़ी आपदा के सामने वैज्ञानिक अनुसंधान इतने बौने सिद्ध होंगे यह कल्पना न थी | महामारी से संबंधित अनुसंधानों के द्वारा पहले से इतनी तैयारियाँ करके तो रखी ही जा सकती थीं ,जिनसे महामारी से जूझती जनता को कुछ तो मदद पहुँचाई ही जा सकी होती |आखिर किस बल पर यह बार बार कहा जा रहा था कि कोरोना से चल रही जंग हम जीतेंगे | हम कोरोना को पराजित करेंगे ! हम अवश्य विजयी अवश्य होंगे !आदि आदि !!
     महामारी संबंधी हमले को यदि शत्रुकृत आक्रमण ही मान लिया जाए तो ऐसे युद्धों को जीतने के लिए भी तो रणनीत पहले से बना करके रखी जाती है | केवल ये कहने से बात नहीं बन जाती है कि शत्रु से चल रही जंग हम जीतेंगे | हम शत्रु को पराजित करेंगे ! हम अवश्य विजयी अवश्य होंगे !आदि आदि !!
    शत्रु देशों  के साथ संभावित युद्धों से निपटने के लिए तैयारियाँ पहले से करके रखी जाती हैं | जिनसे सैनिकों को इतना सहयोग तो मिल ही जाता है कि शत्रु देश कितना भी कपटपूर्ण युद्ध करे अर्थात कितने भी वेरियंट (स्वरूप)  बदले फिर भी उसे पराजित कर ही दिया जाता है | 
    इसी प्रकार से ऐसी अचानक घटित होने वाली घटनाओं से बचाव के लिए पहले से करके रखी गई तैयारियाँ बहुत महत्त्व रखती हैं |जिनके द्वारा महामारी संबंधी वेरियंट (स्वरूप) बदलने की चिंता तो नहीं ही करनी पड़ती प्रत्युत दुश्मन देश  की तरह ही महामारी को भी स्वरूप परिवर्तन करने की चुनौती दी जा सकती थी कि वह कितना भी स्वरूप परिवर्तन कर ले फिर भी जनता को महामारी से संक्रमित नहीं होने दिया जाएगा !
   वैज्ञानिकों के द्वारा कही जा रही महामारी के स्वरूप परिवर्तन की बात ऐसे लग रही थी जैसे हमलावर दुश्मन देश के विषय में ये कहा जा रहा हो कि यदि शत्रु रणनीति बदलना बंद कर दे तो यह युद्ध जीता जा सकता है | शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए शत्रु से ही सहयोग की आशा ! कितनी अद्भुत है यह वैज्ञानिकता !इतने भोलेपन से लड़े गए युद्धों में विजय होते कहाँ देखी जाती है|
     कुलमिलाकर शत्रु देशों से निपटने के लिए सेना को जिस प्रकार की तैयारियाँ आगे से आगे करके चलना पड़ता है महामारी से निपटने के लिए भी वैसी ही तैयारियों की आवश्यकता है |  यदि ऐसा किया जा सका होता तो संभव है कि जनता को महामारी से इतना पीड़ित न होना पड़ता ! इस प्रकार से महामारी मुक्त समाज की संरचना के पवित्र संकल्प को पूरा किया जा सकता था किंतु तैयारियों  के अभाव में महामारी जनित पीड़ा इतनी अधिक सहनी पड़ी कि वैज्ञानिक प्रयासों से समय रहते  ऐसी कोई मदद नहीं पहुँचाई जा सकी जिससे सुरक्षित बचा जाना संभव होता | अंत में थक हार कर सभी को अपनी एवं अपनों की जिंदगी ईश्वर के भरोसे ही छोड़ देनी पड़ी है | 
     महामारी से निपटने के लिए पहले से करके रखी गई तैयारियों  पर चिंतन करके इस सच्चाई की खोज की जा सकती है कि कोरोना संकट के लिए महामारी की भयंकरता जिम्मेदार है या कि उससे निपटने की वैज्ञानिक तैयारियों का अभाव !
    महामारी जैसे अघोषित एवं अप्रत्याशित शत्रु  का सामना करने के लिए हमारे वैज्ञानिकों के द्वारा किस किस प्रकार की  तैयारियाँ करके पहले से रखी गई थीं ! उनके द्वारा महामारी से  जूझती जनता को कितनी मदद पहुँचाई जा सकी !उससे समाज कितना लाभान्वित हुआ इसका कटु अनुभव समाज को भी है |  
   आश्चर्य इस बात का है कि निरंतर चलाए जा रहे अनुसंधानों के बाद भी  महामारी इतनी जनधन हानि करने में सफल हो गई  और महामारी आने के विषय में पहले से हम कुछ भी पूर्वानुमान नहीं लगाए जा  सके ! इसके लिए महामारी के स्वरूप परिवर्तन को दोष दिया जाना कतई ठीक नहीं है |ये  वैज्ञानिक अनुसंधानों की कमजोरी है |ये  | स्वरूप परिवर्तन महामारी की गलती नहीं अपितु महामारी का स्वभाव है | 
  कोई भी शत्रु देश जब किसी देश पर हमला करता है तो वह उस देश की सुविधाओं का ध्यान नहीं रखता प्रत्युत अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए जितने भी प्रकार के षड्यंत्र रचे जा सकते हैं वो सारे छल बल अपना कर युद्ध जीतने के लिए प्रयत्न करता है |इसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता है कि वो  षड्यंत्र रच रहा है |  अपना बचाव करने की जिम्मेदारी उस देश की होती है जिस पर हमला किया गया होता है |ऐसी स्थिति में  पहले से करके रखी गई तैयारियों के बल पर ही आक्रांता को पराजित करके खदेड़ा जा सकता है | 

 
  महामारी को बदनाम क्यों किया जा रहा है आखिर उसका दोष क्या है ?
    महामारी अचानक आ गई,उसके लक्षण पता नहीं लग रहे हैं,उसका निदान करना असंभवहो रहा है !महामारी बहुत भयंकर है ,बहुत लोगों को संक्रमित कर रही है ! कोरोना स्वरूप बदल रहा है | ऐसी बातें हमें आखिर क्यों करनी पड़ रही हैं इसीलिए न कि हम उसके विषय में कुछ जानते नहीं हैं | इसका कारण  हमने उस प्रकार के अनुसंधान ही नहीं किए जिनसे ऐसी बातों का पता लगाया जा सकता था | हम तो मौसम संबंधी अनुसंधानों के आदी हैं | मौसम के विषय में अनुमानों पूर्वानुमानों के नाम पर हम कुछ भी बोल दिया करते हैं वो सही निकले या गलत अपनी बला से !मौसम विषयक उस प्रकार अनुमानों पूर्वानुमानों की जनता अभ्यासी हो चुकी है | इसलिए उसे भी अब पूर्वानुमान गलत होने  पर बहुत बुरा नहीं लगता है | पूर्वानुमान गलत निकलने का कारण वैज्ञानिक लोग जलवायु परिवर्तन को  बता ही देते हैं | अब तो जनता स्वयं भी समझने लगी है कि प्राकृतिक घटनाओं के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए जाने वाले अनुमान पूर्वानुमान आदि सही निकल जाएँ तो इसे वैज्ञानिकों की योग्यता से जोड़कर देखा जाए और यदि यही गलत निकल जाएँ तो उसमें वैज्ञानिकों का कोई दोष नहीं होता है इसमें सारा दोष सीधे सीधे जलवायु परिवर्तन का माना जाना चाहिए | ऐसे ही महामारी विज्ञान की असफलता का कारण भी महामारी का स्वरूप परिवर्तन है उससे वैज्ञानिक अनुसंधानों का क्या लेना देना | ऐसे परिवर्तनों को जनता स्वयं समझे उसके अनुसार व्यवहार करे उपाय अपनावे औषधियाँ ले या फिर प्राप्त परिस्थितियों का सामना करे |
 
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                             प्राचीन गणितविज्ञान

                    महामारी पूर्वानुमान उन्हें ही नहीं पता थे जो दूसरों को बता रहे थे !
    प्राकृतिक आपदाएँ एवं महामारियाँ हर युग में घटित होती रही हैं इनसे भारी भरकम जनधन हानि भी हमेंशा  ही होती रही है | इस नुक्सान से जनता को बचाया कैसे जाए जिससे समाज ऐसी घटनाओं से कम से कम प्रभावित हो इसके लिए न केवल चिंतन हमेंशा से होता रहा है अपितु उस समय में जब जितने साधन उपलब्ध होते रहे उसी हिसाब से बचाव के लिए प्रयत्न किए जाते रहे हैं |  
     ऐसी घटनाओं को घटित होने से रोक देना ये मनुष्य के बश की बात नहीं है इसलिए  ऐसी प्राकृतिक घटनाओं एवं महामारियों से जनता का बचाव कर लेना ही एक मात्र मनुष्य के बश में है |ऐसी घटनाओं से जो नुक्सान होना होता है वो प्रायः पहले झटके में ही हो जाता है | ऐसी स्थिति में घटना घटित होने से पहले सुरक्षित स्थानों पर सुरक्षित वातावरण में पहुँचकर अपनी सुरक्षा की जा सकती है |  बचाव किया जाना भी तभी संभव है | ऐसा करने के लिए भी घटनाओं के घटित होने के  पहले इनके घटित होने की संभावना पता लगा ली जाए | यह किया जाना तभी संभव है जब ऐसी  घटनाओं के घटित होने के विषय में आगे से आगे सही सटीक पूर्वानुमान पता लग जाए |
    पूर्वानुमान लगाना तभी संभव है जब इसके लिए कोई विज्ञान हो ! उसी विज्ञान के आधार पर तत्परता पूर्वक अनुसंधान किए जाएँ और उन अनुसंधानों के द्वारा ऐसी बड़ी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि पता किया जाए |  ऐसे विज्ञान की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही प्राचीन काल में प्राकृतिक लक्षणों एवं गणित विज्ञान का  उपयोग किया जाता रहा है | जिनके द्वारा पूर्वानुमान लगाकर ऐसी घटनाओं से यथा संभव अपना बचाव कर लिया जाता था | 
   कुछ सौ वर्षों के पूर्व जब से आधुनिक विज्ञान का उदय हुआ तब से इस विज्ञान पर अधिक विश्वास किया जाने लगा | इसी विज्ञान के आधार पर वैज्ञानिक लोग हमेंशा अनुसंधान किया करते हैं |उसके आधार पर ऐसी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जाते हैं |
   ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों के लगातार चलते रहने के बाद भी महामारी आने के विषय में पहले से कुछ भी पता नहीं लगाया जा सका | कोरोना महामारी ने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को बिल्कुल बेदम कर दिया  है |वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा  महामारी से जूझती जनता को मदद बिल्कुल नहीं पहुँचाई जा सकी है | नुक्सान  की दृष्टि से देखा जाए तो  ऐसे अनुसंधानों से  महामारी काल में कोई विशेष मदद नहीं मिल सकी है | इस पर गंभीर चिंतन किए जाने की  आवश्यकता है | 
                   भारत का प्राचीन गणितविज्ञान कर सकता है महामारी का समाधान !
      निस्संदेह आधुनिक विज्ञान ने अपने विभिन्न आविष्कारों से मनुष्य जीवन को धन्य कर दिया है | इससे एक से एक बड़ी उपलब्धियाँ हासिल हुई हैं |जो न केवल उपयोगी हैं अपितु उनसे बहुत सारी कठिनाइयाँ कम करके मनुष्य जीवन को सफल एवं सुख सुविधापूर्ण बनाया जा सका है किंतु ये सारा विकास तभी तक काम आएगा जब तक जीवन है | 
    भूकंप  बाढ़ बज्रपात आँधी तूफान एवं महामारी जैसी सभी प्रकार की हिंसक प्राकृतिक घटनाएँ एक झटके में हजारों लाखों लोगों का जीवन समाप्त कर देती हैं | वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा इनके विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि पता न लगा पाना भविष्य के लिए चिंता पैदा करता है |ये न जाने कब घटित होने लगें !किसी को पता नहीं है | 
    समाज संगठन सरकारें जहाँ एक ओर विकास की बड़ी बड़ी योजनाएँ  बना रहे होते हैं बड़ी धूम धाम से उनके विषय में काम शुरू किया जा रहा होता है ,वहीं दूसरी ओर यदि  ऐसी प्राकृतिक घटनाएँ अचानक घटित होने लगती हैं तो अपनी बनाई योजनाएँ पीछे पड़ जाती हैं और उन भयानक घटनाओं से पहले जूझना पड़ जाता है | जिनके विषय में एक दिन पहले तक कुछ पता ही नहीं होता है | जिन्हें समझना जिनका सामना करना एवं जिनसे अपना बचाव करना उतने कम समय में संभव नहीं होता है |
    संकट कालीन ऐसे कठिन अवसरों पर मजबूरीबश प्राकृतिक आपदाओं की दया के भरोसे ही जीवन जीना पड़ता है वे चाहें मारें या छोड़ें उन पर मनुष्य का कोई बश नहीं रह जाता है | व्यक्तिगत रूप से मैं प्राकृतिक विषयों में अभी तक किए जाते रहे अनुसंधानों के विषय में सोच सोच कर भविष्य के लिए चिंतित अवश्य हूँ |इतनी बड़ी वैज्ञानिक क्रांति के बाद भी महामारियों और  प्राकृतिक आपदाओं के आगे मनुष्य अभी तक इतना असहाय है |वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा यदि हम जीवन को सुरक्षित बनाए रखने की प्रक्रिया खोजने में सफल नहीं हुए तो इतने कमजोर वैज्ञानिक अनुसंधानों से चिपके रहना आवश्यक क्यों है | जिनके किए जाने से कोई लाभ नहीं और न किए जाने से कोई नुक्सान नहीं  फिर भी इन्हीं की ओर ताकते रहने का उद्देश्य आखिर क्या है  |
       प्राकृतिक विषयों में आधुनिक विज्ञान के विकल्प के तौर पर यदि भारत के प्राचीन विज्ञान को रख कर देखा जाए तो उपग्रहों रडारों सुपर कंप्यूटरों की मदद लिए बिना भी हजारों वर्ष पहले के सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाता है ,जो एक एक मिनट सेकेंड आदि सही निकलता है | इसका आधार गणित वैज्ञानिक पद्धति है |इसी पद्धति के अनुसार अनुसंधान पूर्वक यदि कोरोना जैसी महामारियों  एवं भूकंप बाढ़ बज्रपात तथा आँधी तूफान जैसी हिंसक प्राकृतिक घटनाओं के विषय में भी सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए |इनके सही निकलते ही  जलवायु परिवर्तन एवं महामारी के स्वरूप परिवर्तन जैसे भ्रम स्वतः समाप्तः हो जाएँगे | 
      जिन परिवर्तनों को देखकर जलवायु परिवर्तन एवं महामारी के स्वरूप परिवर्तन जैसा भ्रम होता है उन्हीं परिवर्तनों के विषय में जनता को आगे से आगे पूर्वानुमान पता होता है | ऐसा ही महामारी के विषय में होता है |लोगों को पता होता है कि अब इस प्रकार के परिवर्तन होने वाले हैं |मौसम और महामारियों के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान पता लगते ही जलवायु परिवर्तन एवं महामारी के स्वरूप परिवर्तन जैसे भ्रम स्वतः समाप्त हो जाते हैं | ऐसे पूर्वानुमानों के गलत निकलने की संभावना बहुत कम होती है, क्योंकि सूर्य चंद्र ग्रहणों के विषय में लगाए गए गणितीय पूर्वानुमान कभी गलत नहीं निकले हैं |  
    ऐसा गणित विज्ञान केवल सनातन धर्मियों की ही प्राचीन परंपराओं एवं ग्रंथों में मिलता है | इसलिए यदि इस क्षेत्र में कोई सफलता मिलती है तो इससे अपने देश और समाज को तो सहयोग मिलेगा ही इसके साथ ही साथ इससे संपूर्ण विश्व लाभान्वित होगा |वर्तमान युग में विश्व के लिए विश्वगुरु भारत की यह एक बड़ी सौगात होगी |
      इसलिए महामारियों और  प्राकृतिक आपदाओं को  भविष्य के लिए चुनौती की तरह स्वीकार किया जाना चाहिए और एक लक्ष्य बनाकर चला जाना चाहिए कि इससे संबंधित अनुसंधानों को जिस किसी भी प्रक्रिया से सफल बनाना संभव होगा उसी पद्धति से निर्धारित समय में सफल कर ही लिया जाएगा | महामारियाँ और प्राकृतिक आपदाएँ तो हजारों वर्षों से आती रही हैं |जिस प्राचीन गणित विज्ञान के द्वारा  प्राचीन युग में प्राचीन समय में मनुष्यों की सुरक्षा की जाती रही है | उसी के  बल पर हमेंशा से लोग स्वस्थ एवं सुरक्षित बचते  रहे हैं |आधुनिक विज्ञान का साथ मिलते ही उस गणित विज्ञान को अंध विश्वास बताकर उसकी उपेक्षा कर दी गई | उससे संबंधित अनुसंधान बंद हो जाने के कारण समाज को उनसे मिल रही मदद भी बंद हो गई |आधुनिक विज्ञान के द्वारा  महामारियों और  प्राकृतिक आपदाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जाना संभव नहीं है |वैज्ञानिक अनुसंधान प्रक्रिया में हुई इसी लापरवाही के दुष्परिणाम कोरोना काल में समाज  भुगतने पड़े हैं |
  इसलिए ऐसी हठ ठीक नहीं है कि ऐसे अनुसंधान केवल आधुनिक वैज्ञानिक विधा से ही किए जाएँ अपितु महामारियों और  प्राकृतिक आपदाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना जिस भी वैज्ञानिक विधा से संभव हो सफलता का लक्ष्य लेकर उसी पद्धति से अनुसंधान किए जाएँ और निर्धारित समय सीमा में पुरे  किए जाएँ |!जो प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली जनधन को कम करने में सहायक हों |  


    
                            भारत के प्राचीन विज्ञान की क्षमता ! ये बाद में
      सनातनधर्मी भारत के परंपरागत प्राचीन विज्ञान में  प्रकृति विषयक पूर्वानुमानों को लगाने की अद्भुत क्षमता है | इस वैज्ञानिक पद्धति में उपग्रहों रडारों की मदद से प्राकृतिक घटनाओं की जासूसी नहीं करनी पड़ती है | प्राचीन काल में ऐसी  सुविधा भी नहीं थी | 
     इस विधा में गणित के द्वारा संभावित घटनाओं एवं उनमें होने वाले संभावित परिवर्तनों के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाता है| जो काफी ऊँचे स्तर तक सही भी निकलता है | इससे प्रकृति और जीवन दोनों से संबंधित संभावित घटनाओं की वास्तविक प्रकृति का न केवल पता लगाया जा सकता है अपितु अनुमान पूर्वानुमान आदि भी पता किए जा सकते हैं| ये क्षमता प्राचीन विज्ञान में होने पर भी इसे उपयोग में लाया जाना इसलिए कठिन हो रहा है ,क्योंकि प्राचीन काल में ऐसी विद्याओं से संबंधित अनुसंधान चला करते थे तो उससे नई  नई बातें पता लगा करती थीं | धीरे धीरे वह विज्ञान उपेक्षा का शिकार होता चला गया  | उसके बाद देश सैकड़ों वर्षों तक पराधीन रहा | विदेशी आक्रांताओं ने इस वैज्ञानिक विधा को चोरी से अपने देशों में पहुँचा दिया और यहाँ से इसे समूल समाप्त करने के लिए हर संभव प्रयत्न किए गए | इससे विश्व के दो बड़े नुक्सान हुए एक तो  इस वैज्ञानिक साहित्य को जहाँ पहुँचाया गया वहाँ ऐसे विषयों को समझने वाले योग्य विद्वान् नहीं थे | दूसरे भारत में विद्वान थे तो यहाँ वो साहित्य नष्ट कर दिया गया | दोनों ही स्थानों से यह विधा प्रायः समाप्त हो गई थी |  कुछ विद्वान् लुक छिपकर इसके कुछ अंश छिपाने में सफल हुए | उनके आधार पर अनुसंधान पूर्वक संपूर्ण विषय को पुनः प्राप्त किया जाना संभव है किंतु उसके लिए अत्यंत सुयोग्य विद्वानों को ऐसे अनुसंधान कार्य करने के लिए लगाना होगा | सत्ता को उनके साथ दृढ़ता से न केवल खड़ा होना होगा अपितु समस्त आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाने होंगे |
      आधुनिक विज्ञान से संबंधित अनुसंधानों को तो सभी तरह से मदद उपलब्ध करवाई जाती है ऐसे अनुसंधानों पर भारी भरकम धनराशि भी खर्च की जाती है इनके द्वारा लगाए जाने वाले अनुमान पूर्वानुमान आदि गलत होने पर भी सरकारों से उन्हें सब कुछ मिलता रहता है ,जबकि प्राचीन अनुसंधानों की ओर न सरकारों का ध्यान जा रहा है और न ही समाज का | ऐसे अनुसंधानों में कुछ विद्वान् यदि अभी भी संघर्ष पूर्वक अपना जीवन लगाए हैं | अत्यंत तपस्वी जीवन जीते हुए यदि उन्होंने कोई ऐसी प्राकृतिक गुत्थी सुलझा भी ली है जो वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है किंतु  पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है | उनके संघर्ष की  भी सीमा है उनके साथ भी स्वास्थ्य के साथ साथ पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी होती हैं | उनकी भी आयु सीमित है | ऐसे अनुसंधानों को प्रोत्साहन मिले इस दृष्टि से उनकी पुकार सरकारों तक पहुँच नहीं पाती है |वे अनुसंधान समाप्त हो जाते हैं उनके द्वारा किया जाता रहा सारा परिश्रम ब्यर्थ चला जाता है | 
     ऐसे अनुसंधान कर्ताओं की पुकार कई बार सरकारों तक पहुँच भी जाती है तो सरकारें उनके परीक्षण के लिए जिन वैज्ञानिकों की सलाह लेती हैं !वे वैज्ञानिक ऐसे अनुसंधानों को तुरंत गलत सिद्ध कर देते हैं ,आखिर जो काम वे स्वयं नहीं कर सकते हैं उसे किसी दूसरे ने कर दिया इसे स्वीकार करके वे अपने लिए कोई समस्या कैसे तैयार कर सकते हैं | 
     प्राचीन वेद विज्ञान संबंधी अनुसंधानों को करने करवाने के लिए जिन संस्कृत विश्व विद्यालयों  की संरचना जिस उद्देश्य से की गई  है वहाँ भी वही स्थिति है जो कार्य वे स्वयं एवं उनमें स्थापित विद विज्ञान विभागों की है | इन्हें सही मानकर वे अपने को पीछे कैसे कर लें !इसलिए वे इन्हें गलत सिद्ध कर देते हैं | ऐसी स्थिति में ये शोध यहीं समाप्त हो जाते हैं |
     कुल मिलाकर आधुनिक विज्ञान की तरह से ही यदि  प्राचीन विज्ञान संबंधी अनुसंधानों पर भी ध्यान दिया जाता तो केवल महामारी ही नहीं अपितु प्रकृति एवं जीवन से जुड़ी कई बड़ी समस्याओं के प्रभावी समाधान अब तक खोजे जा चुके होते | भारत के पास ये क्षमता होने के बाद भी उसका सदुपयोग नहीं हो पा रहा है |इतनी बड़ी आपदा के समय भी प्राचीन विज्ञान की उपेक्षा की जाती रही है |एक ओर जनता जीवन मृत्यु से जूझ रही थी वहीं जिम्मेदार लोग अपनी अपनी पद प्रतिष्ठा बनाए और बचाए रखने के लिए  जनता के हितों की उपेक्षा करते देखे जा रहे थे | उन्हें अच्छी प्रकार से पता था कि आधुनिक विज्ञान में प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने की कोई वैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं है फिर भी पूर्वानुमानों के नाम पर कुछ न कुछ बोलते रहे | 
   महामारी को अच्छी प्रकार से समझे बिना चिकित्सा नहीं की जा सकती है और न कोई औषधि ही तैयार की जा सकती है | ऐसी स्थिति में महामारी को जब ठीक ठीक प्रकार से पहचाना ही नहीं जा सका तो बाकी प्रक्रिया तो निदान के ही अनुशार होती है |     
    महामारी  के विषय में अनुसंधान करने के लिए यदि ऐसी कोई वास्तविक वैज्ञानिक पद्धति  होती तब तो वैज्ञानिकों ने कोरोना महामारी जैसे इतने बड़े संकट के विषय में बहुत पहले न केवल पूर्वानुमान बता दिया गया होता अपितु उससे बचाव के लिए उपाय भी खोजकर रख लिए होते !कोरोना से मुक्ति दिलाने वाली औषधियों का निर्माण कर के रख लिया गया होता |महामारी आने से पहले ही इससे संबंधित हर दुविधा समाप्त कर चुके होते  |समाज को स्पष्ट रूप से बता दिया गया होता कि इस प्रकार की महामारी इस समय आने वाली है उससे बचाव के लिए सारी  तैयारियाँ पहले से करके रख ली गई होतीं | इस  प्रकार से प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित  प्राचीन वैज्ञानिक विद्याओं की उपेक्षा करने से भी बहुत नुक्सान हुआ है  |
 
  ऐसे वैज्ञानिक विषयों के प्रति  वर्तमान सरकार की उदारता के कारण जिस भावना से  कुछ संस्कृत विश्व विद्यालयों में वेदविज्ञान विभाग बनाए तो गए हैं | उसमें वैज्ञानिक स्वभाव वाले कुछ ऐसे सुयोग्य प्राचीन वैज्ञानिकों की आवश्यकता है जो न केवल पहले से ऐसे विषयों में अनुसंधान करते रहे हों अपितु उन्होंने पहले जिन जिन प्राकृतिक घटनाओं के विषय में जो जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए हों वो सही भी निकलते रहे हों | उनके द्वारा सफलता की ऐसी श्रंखला यदि प्रमाणित रूप से प्रस्तुत की जा सके तो उन्हें ऐसी जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए | मुझे विश्वास है कि ऐसे विद्वान वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय को भारतीय वैदिक वैज्ञानिक अनुसंधानों से एक नई  दिशा देने में अवश्य सफल होंगे | 
     ऐसे प्राकृतिक विषयों में व्यक्तिगत रूप से जिन्होंने पहले कभी कोई अनुसंधान किए ही न हों उन्हें ऐसे विभागों के संचालन की जिम्मेदारी दे भी दी जाए तो वे बेचारे अचानक वैज्ञानिक थोड़ा बन जाएँगे | उनके बश का कुछ होता ही तो कोरोना जैसी महामारी में इतनी जनधन की हानि नहीं होती |  महामारी या प्राकृतिक आपदाओं आदि के विषय में उनके द्वारा कभी कोई सही पूर्वानुमान लगाकर समाज को लाभान्वित नहीं किया जा सका होता   ! कोरोना महामारी के समय में भी उन  विद्वानों की कोई भूमिका प्रकाश में नहीं लाई  जा सकी है !
    ऐसे अनुसंधानों के नाम पर कोई मैगजीन प्रकाशित करना या कोई सेमिनार कर लेना खानापूर्ति मात्र है जो संस्कृत एवं परंपरागत विज्ञान  के प्रति वर्तमान सरकार की उदारता का उपहास है |इससे उद्देश्य की पूर्ति होना संभव नहीं है | 
     भारत के परंपरागत प्राचीन विज्ञान में ऐसी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान लगाने की जो विधियाँ बताई गई हैं उस आधार पर मेरे द्वारा अनुसंधान किए जाने पर उनसे प्राप्त पूर्वानुमान अभी भी सही निकलते देखे जा रहे हैं जो अभी भी प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किए जा सकते हैं | उनमें और अधिक सटीकता लाने के लिए इस क्षेत्र में कुछ गंभीर अनुसंधानों की आवश्यकता है | संसाधनों के अभाव में मेरे द्वारा व्यक्तिगत रूप से ऐसा किया जाना संभव नहीं हो पा रहा है |मेरे द्वारा कुछ दशकों से किए जा रहे अनुसंधानों से प्राप्त अनुभवों के आधार पर विश्वास पूर्वक यह कहा जा सकता है कि भारत के इस प्राचीन विज्ञान के द्वारा प्रकृति एवं जीवन से जुडी कुछ बड़ी समस्याओं के समाधान आसानी से खोजे जा सकते हैं | 
     महामारी के समय बार बार यह कहा जा रहा था कि कोरोना महामारी से चल रहे युद्ध को हम अवश्य जीतेंगे | कोरोना हारेगा | अब कोरोना भागेगा !हम तो  महामारी को पराजित करके ही दम लेंगे  !आदि आदि बातें बोली जा रही थीं | ऐसी न जाने कितनी गर्वोक्तियाँ बार बार दोहराई जा रही थीं | ये सोचने वाली बात है कि महामारी को पराजित करने लायक हमारे पास ऐसा था क्या जिसके बल पर हम लोग इतना बड़ा भ्रम  पाले बैठे थे |समाज को ऐसे आश्वासन आखिर  किस बल पर दिए जा रहे थे | ये गंभीरता से सोचे जाने की आवश्यकता है |



                                                       
  
 
 
 
  विनम्र निवेदन 
 
      आधुनिकविज्ञान ने कुछ क्षेत्रों में बहुत तरक्की की है इसमें कोई संशय नहीं है ,किंतु महामारी और मौसम जैसे क्षेत्र अभी भी उलझे हुए हैं जिन्हें सुलझाया जाना मानव जीवन के लिए बहुत आवश्यक है,किंतु आधुनिक वैज्ञानिक विधा से लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान  चाहें जितने गलत निकलें और चाहें जब तक गलत निकलते रहें किंतु  इन्हें तो विज्ञानसम्मत ही माना जाता रहेगा  जबकि लाभप्रद होने के बाद भी प्राचीन ज्ञान विज्ञान के द्वारा किए गए अनुसंधानों की  अंध विश्वास बताकर निरंतर उसकी उपेक्षा की जाती रही है | ये सोच ठीक नहीं है |
    आधुनिक विज्ञान का इतिहास मात्र कुछ सौ वर्ष पुराना है जबकि  महामारी भूकंप बाढ़ बज्रपात एवं आँधी तूफ़ान जैसी प्राकृतिक आपदाएँ  अनंतकाल  से घटित होती चली आ रही हैं | इसलिए इन्हें समझने के लिए अनुभव भी अनंत काल के ही चाहिए |  सनातन धर्मावलंबियों के पास परंपरा से प्राप्त अनंत अनुभवों का असीम भंडार है | अनुसंधानों की दृष्टि से वह अभी भी बहुत उपयोगी है इसलिए उस दृष्टि से भी बिचार किया जाना चाहिए |प्राचीन वैज्ञानिकों के पास प्रायः प्रत्येक प्राकृतिक विषय में अनुभवों की इतनी प्राचीन श्रंखला थी जिसके द्वारा बड़ी से बड़ी समस्या के समाधान निकाल लिए जाते थे | उस समय का वह विज्ञान अब कहाँ है जिसके द्वारा सृष्टि का क्रम कभी बाधित नहीं होने दिया गया | ये इस बात का प्रमाण है कि उस युग में कोई न कोई विज्ञान तो रहा ही है ,जिसके द्वारा महामारियों एवं सभी प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से समाज की सुरक्षा होती रही है | उस समय ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से बचाव कैसे होता होगा !उन उपायों से अभी भी समाज को मदद मिल सकती है |इस विषय पर गंभीर चिंतन किए जाने की आवश्यकता है |बचाव की दृष्टि से उस कालखंड में किए गए अनुभवों की उपेक्षा किया जाना ठीक नहीं है | 
    वेद पुराणों में वर्णित भारत का प्राचीन ज्ञान विज्ञान जो परंपरा से प्राप्त हुआ है | वो प्रमाणित भी है प्रत्यक्ष भी है तर्क की कसौटी पर कसा भी जा सकता है उसका आधार भी मजबूत है | उसके आधार पर लगाए गए इन्हीं विषयों से संबंधित अनुमान पूर्वानुमान आदि यदि सही भी निकलते हैं | उनसे महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं की संभावनाओं का आगे से आगे  पता लगाकर जनता को इनकी चपेट में आने से बचाया भी जा सकता है | उसकी उपेक्षा का कारण क्या है ?
     प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारियों से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधानों के क्षेत्र में इस प्रकार की पक्षपात पूर्ण परंपरा ठीक नहीं है इससे जनहित की आशा नहीं की जा सकती है | वैज्ञानिक अनुसंधानों का उद्देश्य यदि जनता के जीवन की कठिनाइयाँ कम करना है जीवन को आसान बनाना है तथा  महामारी एवं मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में सही अनुमान पूर्वानुमान आदि उपलब्ध करवाकर समाज की मदद करना है तो किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह ठीक नहीं है | ऐसे सभी प्रकार के अनुसंधानों को जनहित की कसौटी पर तर्क पूर्ण ढंग से कसा जाए तथा जिससे जनता को अधिक से अधिक लाभ मिलना संभव सके  उसे जनहित में स्वीकार किया जाना चाहिए |   
    भारत के प्राचीन विज्ञान को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए ! प्राचीन भारत में उपग्रहों रडारों सुपर कंप्यूटरों की व्यवस्था न होने पर भी प्रकृति के लक्षणों के आधार पर भावी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगा लिया जाता था | इसविषय में अनेकों ऋषियों मुनियों का नाम लिया जा सकता है |कुछ समय पूर्व उत्तर भारत में प्रसिद्ध घाघ नाम के मौसम विशेषज्ञ हुए हैं जो न केवल पूर्वानुमान लगा लिया करते थे अपितु उसके वैज्ञानिक सूत्र भी बना दिया करते थे | 
  इसी प्रकार से वर्तमान समय में भी मौसम वैज्ञानिकों को अपने अनुसंधानों के द्वारा जलवायुपरिवर्तन के रहस्य को उद्घाटित  किया जाना चाहिए ! यदि वे ऐसा कर सकने में समर्थ हैं तो यही उनकी वैज्ञानिकता है |आधुनिक विज्ञान जब नहीं था उस समय महामारी समेत समस्त प्राकृतिक आपदाओं में जन धन का जो नुक्सान हुआ करता था !वर्तमान वैज्ञानिक  अनुसंधानों के द्वारा उसे कितना कम किया जा सका है उतनी ही अनुसंधानों की सफलता और सार्थकता है |  बीते सौ दो सौ चार सौ वर्षों से जो अनुसंधान किए जाते रहे हैं उन अनुसंधानों को करने के लिए किया क्या क्या किया गया ये महत्त्व नहीं रखता है प्रत्युत उससे जनता को मदद कितनी पहुँचाई जा सकी यह सोचे जाने की आवश्यकता है,अभी तक जो वैज्ञानिक अनुसंधान किए जाते रहे हैं वो न किए गए होते तो जनता को इससे अधिक और क्या क्या नुक्सान उठाना पड़ता  जो अनुसंधानों के होने से नहीं उठाना पड़ा है | इस दृष्टि से अनुसंधानों की समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है | 

    किसी आपराधिक घटना के घटित होने के लिए अपराधी तो जिम्मेदार होता ही है उसके साथ ही साथ वह शासन प्रशासन भी उतना ही जिम्मेदार होता है जिसकी लापरवाही से वह अपराध  घटित हुआ होता है |ऐसे अपराध रोकने के लिए  शासन प्रशासन न केवल जिम्मेदारी सौंपी गई होती है अपितु इसके बदले उन्हीं पारिश्रमिक भी दिया जा रहा होता है | इसके बाद भी यदि अपराध घटित हो जाता है तो इस कर्तव्य निर्वहन में हुई चूक के कारण उसकी जाँच पड़ताल से लेकर अपराधी को पकड़ने एवं दंडित करवाने तक संसाधनों पर जो धन लगाया जाता है वह जनता क्यों भुगते |
     इसीप्रकार से प्राकृतिक आपदाओं और महामारियों को घटित होने से रोका भले न जा सकता हो किंतु ऐसी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि तो प्रयत्न पूर्वक लगाया ही जा सकता है | इसके लिए वैज्ञानिक लोग अनुसंधान तो किया ही करते हैं उन पर जनता का धन खर्च होता है|इसके बाद उनके द्वारा लगाए गए गलत अनुमान पूर्वानुमान आदि की कीमत भी जनता ही चुकावे | सही पूर्वानुमान  पता लगाए जा सकें तो उन्हीं के आधार पर संभावित परिस्थितियों से बचाव के लिए प्रयत्न किए जा सकते हैं| इसके साथ ही साथ महामारी जैसी घटनाओं की संभावना होने पर आवश्यक औषधियों एवं औषधीय द्रव्यों का संग्रह तो किया ही जा सकता है | 
    अनुसंधान निरंतर चलते ही रहें इसी बीच उन्हीं से संबंधित घटनाएँ घटित होने लगें उनके विषय में किसी को पता भी न लगे ये अनुसंधानों का कैसा ढंग है |ऐसे संकट के समय समाज को यदि मदद न पहुँचाई जा सके और इसका कारण महामारी का स्वरूपपरिवर्तन या जलवायुपरिवर्तन होना बताकर हाथ खड़े कर दिए जा रहे हों तो जनता के साथ एक प्रकार का धोखा है | इसकी जिम्मेदारी किसी को तो लेनी ही पड़ेगी |यदि कोरोना स्वरूप बदल भी रहा है तो वैज्ञानिक तो आप ही हैं इसके लिए समाज क्या करे ! ये तो महामारीवैज्ञानिकों का ही कर्तव्य है कि महामारी कितना भी स्वरूप परिवर्तन करे फिर भी महामारी का स्वभाव लक्षण संक्रामकता आदि के विषय में महामारी वैज्ञानिक पता लगावें | इसकी जिम्मेदारी तो उन्होंने ही सँभाल रखी है |
    वैज्ञानिक लोग महामारी संबंधी अनुसंधान हमेंशा किया करते हैं उनके लिए महामारी  के स्वभाव को समझना  असंभव सा क्यों बना हुआ है ? महामारी आने से पहले इसके विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सका | ये चिंता की बात है | 


 
 
                                                        विज्ञान और अनुसंधान
    महामारी और मौसम जैसे प्राकृतिक विषयों में वैज्ञानिक अनुसंधानों को करने करवाने के लिए भारी भरकम धनराशि  खर्च की जाती है | जनता के द्वारा टैक्स रूप में सरकारों को दिया गया धन ऐसे अनुसंधान कार्यों पर भी खर्च्र  होता है |ऐसे कार्यों को करने के पीछे समाज का एक उद्देश्य होता है कि ये धन जिस प्रकार के अनुसंधानों में लगाया जाएगा उनसे कुछ ऐसा हासिल किया जाएगा जिससे उन अनुसंधानों से संबंधित जनता की कठिनायों को कम किया जा सके ! जनता के जीवन को आसान बनाया जा सके एवं किसी संकटकाल के उपस्थित होने पर उन अनुसंधानों से कुछ ऐसी मदद की जा सके !इसी उद्देश्य से ऐसे अनुसंधानों पर जनता के खून पसीने से कमाई हुई भारी भरकम धनराशि खर्च की जाती है |  जनता को भी ऐसे अनुसंधानों से आशा रहती है कि ये विशेषकर संकट काल में हमारी मदद करेंगे |
    ऐसे अनुसंधानों को करने की जिन वैज्ञानिकों को जिम्मेदारी दी जाती है वे अनुसंधानों के द्वारा  ऐसा क्या हासिल कर पाते हैं जिससे समाज को ऐसी कुछ मदद मिल पाती हो जिसके विषय में यह कहा जा सके कि यदि अनुसंधान न किए जाते तो समाज को ऐसी मदद पहुँचाई जानी संभव न थी,यदि मदद न मिल पाती तो समाज को इस इस प्रकार के कुछ अतिरिक्त संकटों से भी जूझना पड़ सकता था | अनुसंधानों से मदद मिलने के कारण उन संभावित संकटों से बचाव हो गया |अनुसंधानों से प्राप्त परिणामों को ऐसी किसी कसौटी पर कसे बिना उन्हें  सफल एवं अनुसंधानों पर खर्च किए धन को सार्थक  कैसे माना जा सकता है |
     महामारियाँ हमेंशा से आती रही हैं आधुनिक विज्ञान का जब उदय हुआ तब से उनका निश्चित डेटा संग्रह होने लगा तो पता है कि लगभग हर सौ वर्षों में महामारियाँ आती रही हैं |  महामारियों के विषय में अनुसंधान भी होते ही रहते हैं |उन अनुसंधानों की आवश्यकता पड़ने पर यदि उनसे कोई मदद न मिले और वैज्ञानिकों के द्वारा बताए गए महामारी संबंधी अनुमान पूर्वानुमान यदि सही न निकलें या बार बार गलत निकलते जाएँ तो चिंता होनी स्वाभाविक है | 
    ईस्वी 1864 में चक्रवात के कारण कलकत्ता में बड़ा नुक्सान हुआ था ! ऐसे ही 1866 और 1871 में अकाल पड़ा था |ऐसी घटनाओं से आहत होकर मौससंबंधी अनुसंधानों की आवश्यकता समझी गई थी| इसी उद्देश्य से 1875 में भारतीय मौसमविज्ञान विभाग की स्थापना की गई थी|उसी समय से मौसम संबंधी अनुसंधान किए जा रहे हैं | उन अनुसंधानों को यदि सफलता की कसौटी पर कसा जाए तो विगत कुछ दशकों में जितनी भी बड़ी प्राकृतिक घटनाएँ घटित  हुई हैं उनमें  अधिकाँश के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि सही नहीं लगाए जा सके हैं, जो लगाए भी गए वे सही नहीं निकले ! मानसून आने और जाने की भविष्यवाणियाँ प्रायः गलत निकलती रही हैं |दीर्घावधि या मध्यावधि मौसम पूर्वानुमान कभी सही नहीं निकले ! अनुसंधानों के नाम पर लगभग डेढ़ सौ वर्ष यदि यूँ ही बिता दिए गए जिनसे ऐसा कोई सार्थक परिणाम ही नहीं निकल सका जिससे समाज को मदद पहुँचाई जा सकी होती | प्राकृतिक आपदाओं एवं महामारियों के विषय में हमारे वैज्ञानिक अनुसंधानों की क्षमता यदि यही है तो इसके भरोसे भविष्य को छोड़ा जाना उचित नहीं है | इसके लिए जा चिंता होनी ही चाहिए |
     यही स्थिति भूकंप संबंधी अनुसंधानों की है | भूकंप संबंधी पूर्वानुमान पता करने के उद्देश्य से अनुसंधान प्रारंभ किए गए  थे ,तब से अनुसंधान तो निरंतर चल रहे हैं उन पर धन भी खर्च हो रहा है समय यूँ ही बीतता जा रहा है किंतु जनता की दृष्टि से देखा जाए तो भूकंप संबंधी पूर्वानुमान लगाने के क्षेत्र में अभी तक एक तिल भर भी सफलता नहीं मिल सकी है जिससे जनता को कोई मदद पहुँचाई जा सके | इसके लिए कितना समय साधन एवं धन और लगेगा इसका भी कोई अनुमान नहीं है | ऐसी अंतहीन अनुसंधान यात्राएँ गंतव्य पर पहुँचेंगी भी या नहीं और पहुँचेंगी तो कब इसके विषय में भी कुछ नहीं बताया जा सका है |भूकंप संबंधी अनुसंधानों के नाम पर केवल धन खर्च हो रहा है और समय बीतता जा रहा है  |इतना लंबा समय यूँ ही बीत गया है|अब भी अनुसंधान शुरू करने के पहले की तरह ही स्थिति बनी हुई है |पहले की तरह ही अब भी भूकंप अचानक ही आ जाते हैं | इसीलिए जनधन की हानि अधिक मात्रा में हो जाती है | परिणाम विहीन ऐसे अनुसंधानों से भविष्य के लिए कैसे कोई आशा की जाए कि जनता को भूकंपों से संबंधित पूर्वानुमान पता लगने कब शुरू होंगे जब उनकी मदद से जनता ऐसे संकटों से अपना बचाव कर सकेगी | 
     इसी प्रकार से वायुप्रदूषण के विषय में अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिकों के द्वारा अभी तक वायु प्रदूषण के ऐसे निश्चित स्रोतों के विषय में पता नहीं लगाया जा सका है,जिनके विषय में विश्वास पूर्वक यह कहा जा सके कि इनके बंद होने पर वायु प्रदूषण बढ़ना बंद हो जाएगा और इनके चालू होने पर तब तक बढ़ता ही रहे जब तक कि  उन्हें बंद न किया जाए | ऐसे निश्चित स्रोतों का खोजा जाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है | इससे असमंजस की स्थिति बनी हुई है |  
    कुल मिलाकर ऐसे विषयों में वैज्ञानिक अनुसंधानों के नाम पर जो कुछ भी किया जा रहा होगा वो वैज्ञानिकों को ही पता होगा !उन अनुसंधानों पर जितना धन खर्च होता होगा वो केवल सरकारों को ही पता होगा | उन अनुसंधानों से मदद कितनी मिल पाई है इसका अनुभव उस समाज के पास है जिसका धन ऐसे अनुसंधानों पर खर्च किया जाता है | मौसम के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा की जाने वाली भविष्यवाणियों का गलत निकल जाना कोई नई बात नहीं है |इसके लिए तो लोग अभ्यासी हो गए हैं किंतु  महामारियों के विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा बताए जाने वाले अनुमानों पूर्वानुमानों के बार बार गलत निकलने का अनुभव पहली बार हुआ है | इस बार समाज ने ध्यान भी अधिक दिया है क्योंकि इस समय जनता महामारी से बुरी तरह से जूझ रही थी | ऐसे समय में समाज को अपने वैज्ञानिकों से मदद मिलने की बहुत बड़ी आशा थी |  
                                                         मौसम और महामारी  
    प्राकृतिक विषयों में आज तक किए गए  सैकड़ों वर्षों के वैज्ञानिक अनुसंधानों से ऐसा क्या हासिल हुआ जिससे  महामारी या प्राकृतिक आपदाओं से जूझते  समाज को कुछ मदद पहुँचाई जा सकी हो |
      सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि जलवायुपरिवर्तन के कारण यदि सही सही मौसम पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है तो इससे केवल मौसम संबंधी अनुसंधान ही प्रभावित नहीं होंगे  प्रत्युत इससे वे अनुसंधान भी प्रभावित होते हैं जो कि मौसम की परिवर्तनशील गतिविधियों पर आश्रित हैं | 
     महामारी की ही बात करें तो कुछ वैज्ञानिक लोग महामारी पैदा और समाप्त होने के लिए या महामारी की लहरें आने और जाने के लिए मौसम को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं | ऐसी स्थिति में महामारी संबंधी उन अनुसंधानों का क्या होगा जो मौसम की गतिविधियों  पर ही आश्रित हैं | वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा यदि मौसमसंबंधी अनुमान पूर्वानुमान ही सही सही लगाए जाने  संभव  नहीं हैं तो मौसम के आधार पर महामारी विषयक अनुसंधानों की कल्पना कैसे की जा सकती है |  
     वैज्ञानिकों के द्वारा बताया जाता है कि अलनीनो  लानिना या जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाएँ मौसम को प्रभावित करती हैं |इसलिए उनके द्वारा लगाए जाने वाले मौसम संबंधी अनुमान पूर्वानुमान आदि गलत निकल जाते हैं |  ऐसी कल्पनाओं में कितनी सच्चाई है ये तो वैज्ञानिक ही जानें ! यदि ऐसा होता भी होगा  तो भी ये वैज्ञानिकों के अनुभव एवं अनुसंधानों के लिए उपयोगी हो सकता है|इसके अतिरिक्त  इससे समाज का कोई भला नहीं हो सकता है |
   पिछले कुछ दशकों में मौसम संबंधी जितनी भी घटनाएँ घटित हुई हैं उनके विषय में या तो पूर्वानुमान लगाए नहीं जा सके और यदि लगाए भी गए तो उनमें से अधिकाँश गलत निकल गए !वैज्ञानिक अनुसंधानों से जनता को मौसमसंबंधी सही पूर्वानुमानों की आवश्यकता होती है वो तो मिले नहीं | अलनीनो  लानिना या जलवायु परिवर्तन जैसी बातें बार बार बताई जा रही हैं | ये जनता के किस काम की हैं |इससे जनता की मौसम संबंधी आवश्यकताएँ तो पूरी होती ही नहीं हैं महामारी विषयक अनुसंधानकार्यों  में कोई मदद नहीं मिल सकती है फिर ऐसे अलनीनो  लानिना या जलवायु परिवर्तन जैसी कल्पनाओं से समाज का लेना देना ही क्या है |
     ऐसी ही स्थिति वायुप्रदूषण से संबंधित अध्ययनों की है | अभी तक यदि वायुप्रदूषण बढ़ने के स्रोतों को ही नहीं खोजा जा सका है तो  उसके आधार पर महामारी के विषय में कोई अध्ययन अनुसंधान आदि किया जाना कैसे संभव है |
   इसी प्रकार से भूकंपों के विषय में पृथ्वी के अंदर की प्लेटें खिसकना हो या पृथ्वी के अंदर संचित गैसों के दबाव की बातें इनसे  जनता को क्या लाभ पहुँचाया जा सका है |ऐसी बातों में यदि कुछ सच्चाई होगी भी तो वह वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधानकार्यों में सहायक हो सकती है !जनता का नुक्सान तो भूकंपों से जुड़ा है| भूकंपों के आने से पहले यदि उनके विषय में सही पूर्वानुमान पता लगते  तब तो उससे जनता का भला हो सकता था किंतु ऐसा किया नहीं जा सका तो बाकी निरर्थक बातों से समाज को लाभ ही क्या है ?
      ऐसे ही महामारी के विषय में जो भी अनुमान पूर्वानुमान वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए जाते रहे वे संपूर्ण रूप से गलत निकलते रहे हैं |इसके बाद वैज्ञानिकों के द्वारा  महामारी के स्वरूप परिवर्तन की जो बात बार बार दोहराई जाती  रही है | ऐसी  बातों में सच्चाई कितनी है इसका पता लगाया जाना तो तभी संभव है जब महामारी के किसी एक स्वरूप के विषय में कुछ पता लगे कि महामारी का वास्तविक स्वरूप क्या था ?उसका स्वभाव कैसा था उसके लक्षण कैसे थे उसका विस्तार कितना था उसकी अंतर्गम्यता कितनी थी | उसकी पहुँच कहाँ कहाँ तक थी उसका प्रसार माध्यम क्या था | उसके पैदा होने का कारण क्या था उसके घटने बढ़ने का कारण क्या था | मौसम ,तापमान या वायु प्रदूषण के प्रभाव से महामारी में किस प्रकार के परिवर्तनों की संभावना थी |महामारी समाप्त कब होगी आदि प्रश्नों के उत्तर वैज्ञानिकों के द्वारा अभी तक खोजे नहीं जा सके हैं | 
     ऐसी परिस्थिति में जब महामारी के किसी एक स्वरूप के विषय में ही जब पता नहीं है तो ये किस आधार पर कहा जा सकता है कि महामारी का स्वरूप परिवर्तन हो रहा है | यदि इस बात को सच मान भी लिया जाए तो महामारी से जूझती जनता को ऐसी बातों से कितनी मदद पहुँचाई जा सकी है | 
    कुल मिलाकर मौसम तथा वायुप्रदूषण का प्रभाव कोरोना संक्रमितों पर पड़ता या नहीं इसका परीक्षण करना ही है तो इसके लिए प्रकृति के स्वभाव पर आधारित अनुसंधान करने होंगे जिससे तापमान बढ़ने घटने तथा वर्षा होने न होने या कम ज्यादा होने के एवं आँधी तूफानों के निर्मित होने संबंधी आधारभूत कारणों को खोजा सा सके |जिससे प्राकृतिक घटनाओं के स्वभाव के विषय में अनुसंधान किया जाना संभव हो | उन स्वाभाविक परिवर्तनों के आधार पर महामारी संबंधी पूर्वानुमान लगाना संभव हो सकता है | महामारियों के विषय में अनुसंधान करने की दृष्टि से उपग्रहों रडारों की मदद से बादलों की जासूसी  करने वाले आधुनिक मौसम विज्ञान  की भूमिका ही क्या है | यही कारण है कि महामारी पर मौसम का प्रभाव पड़ता है या नहीं इसके विषय में  अंत तक कोई निर्णय नहीं किया जा सका | आधे अधूरे मौसम विज्ञान के बलपर इतनी बड़ी महामारी के विषय में कोई भी अनुसंधान किया जाना ही संभव नहीं है | मौसम संबंधी इतने छिछले ज्ञान के आधार पर इस बात का निष्कर्ष निकालना कैसे संभव है कि महामारी पर मौसम का कोई प्रभाव पड़ता है या नहीं |  

            वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियाँ गलत निकलने के लिए प्राकृतिक घटनाओं का क्या दोष है ?
 
    मौसम वैज्ञानिकों का जो वर्ग यह मानता है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है | इसका प्रभाव प्राकृतिक घटनाओं पर पड़ने से उनका संतुलन इतना अधिक बिगड़ जाता है कि मौसम संबंधी घटनाएँ कब कैसी घटित होने लगेंगी, इसके विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव ही नहीं रह जाता है | इसीलिए ऐसी घटनाओं के  विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए भी जाते हैं वे गलत निकल जाते हैं |संभवतः यही कारण है कि विगत कुछ दशकों में  मौसम संबंधी जितनी भी घटनाएँ घटित हुई हैं उनके विषय में वैज्ञानिकों के द्वारा पूर्वानुमान या तो लगाए नहीं जा सके हैं या फिर जो लगाए भी गए हैं उनमें से अधिकाँश गलत निकल जा रहे हैं |
      ऐसा दशकों से होता चला आ रहा है जबकि मौसम संबंधी अनुसंधान निरंतर किए जाते रहे हैं | इसी उधेड़बुन में लगभग डेढ़ सौ वर्ष बीत गए अभी तक इस बात का ही निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका कि प्रचलित मौसम विज्ञान के आधार पर मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव है भी या नहीं | यदि नहीं है तो लगाया क्यों जाता है और गलत पूर्वानुमान लगाने से अच्छा है कि न लगाया जाए ,उन पूर्वानुमानों के लगाने से लाभ ही क्या है जिनका सही निकलना ही संदिग्ध बना रहता है | ऐसे ढुलमुल पूर्वानुमानों के आधार पर भविष्य संबंधी कोई योजना तो बनाई नहीं जा सकती है | अंत तक शंका बनी रहती है कि ये न जाने कब गलत निकल जाएँ | ऐसी स्थिति में इनका लगाया जाना जरूरी ही क्यों है ?
     इसी प्रकार से वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी के विषय  में जो भी अनुमान  पूर्वानुमान आदि लगाए जाते रहे हैं वे प्रायः गलत निकलते रहे हैं | गलत निकल जाने के बाद यह बताया जाता रहा है कि महामारी का स्वरूप परिवर्तन होने के कारण हमारे द्वारा लगाए गए पूर्वानुमान गलत निकल गए हैं | यदि ये पता था अथवा ऐसा होने की आशंका थी तब तो ऐसे पूर्वानुमान लगाए ही नहीं जाने चाहिए थे या फिर महामारी के स्वरूप परिवर्तन  की सामर्थ्य समझकर लगाए जाने चाहिए थे | ऐसा न करके गलती पूर्वानुमान लगाने वालों ने की है जिनके गलत निकलने पर दोष महामारी के स्वरूप परिवर्तन पर मढ़ा जाता है |
    कई वैज्ञानिकों को महामारी संबंधी भविष्यवाणी करते समय यह कहते सुना जाता रहा है कि यदि महामारी का स्वरूप परिवर्तन नहीं हुआ तो इतने दिनों के बाद महामारी की यह लहर समाप्त होगी |वैज्ञानिकों की ऐसी बातों से जनता को मदद तभी मिल सकती थी जब जनता को  यह पहले से पता हो  कि अब महामारी का स्वरूप परिवर्तन होगा या नहीं होगा | जनता को ये पता ही होता तो वो पूर्वानुमान जानने के लिए वैज्ञानिकों की शरण में ही क्यों जाती !ये बात वैज्ञानिकों को भी अच्छी प्रकार से  पता होती है कि जनता महामारी के स्वरूप परिवर्तन  का अनुमान नहीं लगा सकेगी ,फिर भी वे ऐसी निरर्थक बातें बोला करते हैं | जिन्हें अकारण बोलने से बचा जा सकता है | 
      इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि महामारी संबंधी पूर्वानुमानों के सही होने और न होने में महामारी के स्वरूप परिवर्तन की बड़ी भूमिका रही है |इस स्वरूप परिवर्तन के विषय में सही सही पूर्वानुमान लगाए बिना महामारी विषयक सही भविष्यवाणी की जानी संभव ही नहीं थी |
      कुल मिलाकर वैज्ञानिकों की भाषा में मौसम संबंधी पूर्वानुमानों के गलत निकलने के लिए जलवायुपरिवर्तन को भले दोषी ठहराया जाता रहा हो एवं महामारी वैज्ञानिकों के द्वारा उनकी भविष्यवाणियों के गलत निकलने के लिए महामारी के स्वरूप परिवर्तन को भले जिम्मेदार बताया जाता रहा हो किंतु यह विश्वसनीय सच नहीं है| यदि  जलवायुपरिवर्तन मौसम संबंधी घटनाओं को प्रभावित करता है तो मौसम संबंधी घटनाओं के विषय में सही सही पूर्वानुमान लगाने के लिए पहले जलवायुपरिवर्तन के विषय में पूर्वानुमान लगाया जाना चाहिए था इसके बिना मौसम विज्ञान अधूरा है | 
    ऐसे ही महामारी का स्वरूप परिवर्तन महामारी को प्रभावित करता है इसलिए महामारी  के स्वरूप परिवर्तन के विषय में सही सही पूर्वानुमान लगाने के लिए पहले महामारी के स्वरूप परिवर्तन के विषय में सही सही पूर्वानुमान खोजा जाना चाहिए था| इसके बिना महामारी विज्ञान अधूरा है |अधूरे विज्ञान को आधार मानकर किए गए अनुसंधानों से सही पूर्वानुमानों की आशा करनी ही नहीं चाहिए |अपने अनुसंधानों में ऐसी संभावित परिवर्तनशील परिस्थितियों को सम्मिलित किए बिना उनसे संबंधित अनुसंधानों की परिकल्पना ही कैसे की जा सकती है |ये कमी अनुसंधान संबंधी नीतियों के निर्धारण की है |
                           स्वरूप परिवर्तन कर लेने वाले अपराधी क्या पकड़े नहीं जाते हैं !
    
      स्वरूप परिवर्तन कर लेने वाले अपराधियों  को पकड़ कर यदि घटनाओं के रहस्य से पर्दा उठाया जा सकता है तो महामारी का स्वरूप परिवर्तन होने पर ऐसा क्या हो गया कि उसके रहस्य को उद्घाटित नहीं किया जा सका और अपनी अपनी जिम्मेदारी से यह कहकर पल्ला झाड़ लिया गया कि महामारी का स्वरूप परिवर्तन हो रहा है | 
    इसीप्रकार से मौसमसंबंधी गलत पूर्वानुमान इसलिए लगाए जाएँगे क्योंकि जलवायुपरिवर्तन हो रहा है|अरे  जलवायुपरिवर्तन के क्रम स्वभाव प्रभाव अनुमान पूर्वानुमान आदि को समझने की विधि से विहीन विज्ञान को मौसम विज्ञान कैसे कहा जा सकता है | 
    महामारी और मौसम से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधान केवल इसीलिए तो नहीं किए या करवाए जाते हैं कि महामारी आएगी तो वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी के स्वरूप परिवर्तन की बात कहकर हाथ खड़े कर दिए जाएँगे |      शत्रुदेशों के घुसपैठिए यदि स्वरूपपरिवर्तन करके किसी देश में प्रवेश करना चाहें तो सीमा की सुरक्षा में तैनात सैनिक क्या उन्हें इसलिए नहीं पहचान पाएँगे क्योंकि उन्होंने स्वरूपपरिवर्तन कर लिया है |यह जवाबदेही हर हाल में उन्हीं सैनिकों की होती है कि घुसपैठियों ने  कितना भी स्वरूपपरिवर्तन क्यों न कर लिया हो फिर भी वे देश की सीमा में प्रवेश करने में सफल कैसे हो गए ! उनके घुसपैठ कर लेने में सफल होने का मतलब ही है कि तुम सुरक्षा संबंधी जिम्मेदारी निभाने में असफल हुए |
      कुल मिलाकर जब बात परिणाम की आती है उस समय परिणाम हर किसी को अच्छे ही चाहिए उस समय परिस्थितियों में परिवर्तन होने की बात सुनना कोई पसंद नहीं करता | पुलिस की सुरक्षा में रहते हुए यदि कोई अपराधी छोड़कर भाग जाए तो कारण कोई नहीं गिनता हर कोई यही पूछता है कि उस समय तुम क्या कर रहे थे | 
      महामारी और मौसम के क्षेत्र में  महामारी का स्वरूप परिवर्तन एवं जलवायु परिवर्तन कह देने मात्र से जिम्मेदारी पूरी कैसे मान ली जाती है |अन्य क्षेत्रों की तरह ही यदि यहाँ भी जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है तो प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित अनुसंधानों से भी कुछ न कुछ ऐसे परिणाम अवश्य निकल सकते थे जिनसे संकट के
समय में समाज की मदद की जा सकती थी |
    प्राकृतिक घटनाओं के विषय में जो अनुमान पूर्वानुमान आदि वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए जाते हैं वे सही निकलें या गलत इनमें कोई अपनी  जिम्मेदारी नहीं समझता है | इसीलिए ऐसे क्षेत्रों में अनुसंधान होते होते समय चाहें जितना बीत गया हो,इन पर  धनराशि चाहें जितनी खर्च कर दी गई हो किंतु इनसे निकलने वाले परिणाम अभी तक शून्य ही हैं | प्रगति के नाम पर कुछ भी नया नहीं किया जा सका है | महामारियों में पहले की तरह ही कोरोना महामारी में भी लोग संक्रमित हुए हैं | उनमें बहुत लोग मृत्यु को भी प्राप्त हुए हैं | प्राकृतिक घटनाओं से लोग जैसे पहले प्रभावित होते थे वैसा ही अभी भी हो रहा है | इसमें नया कुछ नहीं किया जा सका है जिसका कारण जलवायु परिवर्तन को बताया जा रहा है !इसका मतलब ये हुआ कि अभी तक तो कुछ किया नहीं जा सका है भविष्य में भी इस क्षेत्र से संबंधित अनुसंधानों से प्रभावी परिणामप्रद अनुसंधानों की आशा नहीं की जानी चाहिए |जिस जलवायु परिवर्तन को आज बाधक बताया जा रहा है वो तो भविष्य में भी बने ही रहेंगे | 
     
                    ऐसी भविष्यवाणियाँ करने की मज़बूरी भी क्या है जो सही न निकलें !
    हमारे द्वारा लगाए गए मौसम पूर्वानुमान गलत निकल सकते हैं यह जानते हुए भी पहले  पूर्वानुमान बताए जाते हैं जब वे गलत निकल जाते हैं तब उनके गलत निकलने का कारण जलवायु परिवर्तन को बताया जाता है |ऐसी स्थिति में यदि जलवायु परिवर्तन को समझने की क्षमता है तब तो मौसम संबंधी पूर्वानुमान लगाने चाहिए और यदि नहीं है तो मौसम पूर्वानुमान बताने से दूर रहना चाहिए | ये कमी जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को न समझ पाने वालों की है न कि "जलवायु परिवर्तन"की |अनुसंधानों की असफलता का  कारण महामारी के स्वरूपपरिवर्तन या जलवायुपरिवर्तन को बताया जाना  तर्कसंगत भी नहीं लगता है| प्राकृतिक घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि वैज्ञानिकों के द्वारा या तो बताए नहीं जा पा रहे हैं और जो बताए जा रहे हैं वे गलत निकलते  जा रहे हैं |उनका इतनी बड़ी मात्रा में गलत निकलते जाना ऐसे अनुसंधानों के लिए चिंता की बात है | इसलिए इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए और  इसके  वास्तविक कारणों की खोज होनी चाहिए |
    इसी प्रकार से महामारी वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियों के गलत निकलने का कारण महामारी के स्वरूप परिवर्तन को बताया जाता रहा है | यदि महामारी स्वरूप परिवर्तन इतना ही अधिक प्रभावी था तो जबतक उसके विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव नहीं था तब तक महामारी के विषय में किसी भी प्रकार का  अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने से बचा जाना चाहिए था |
       कई बार एक लहर बीतने के तुरंत बाद वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी के समाप्त होने की भविष्यवाणी कर दी जाती रही है | इसके कुछ सप्ताहों के बाद उन्हीं वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी की अगली लहर आने के विषय में भविष्यवाणी कर दी जाती रही है |भविष्यवाणी गलत निकल जाने पर उसी के विषय में कोई दूसरी तीसरी चौथी आदि भविष्यवाणी करते हुए अपनी बातों को  महामारी के साथ जोड़ने का प्रयास किया जाता रहा है ताकि कुछ तो वैज्ञानिकता सिद्ध हो सके | जितने प्रतिशत गलत निकलेगी उतने प्रतिशत महामारी के स्वरूप परिवर्तन को जिम्मेदार मानलिया जाता है |यह कैसा महामारी विज्ञान है | इतने बार झूठी भविष्यवाणियाँ करने से अच्छा होता कि एक बार सच बोल दिया जाता कि महामारी के विषय में हम लोग पूर्वानुमान नहीं लगा सकते हैं क्योंकि ऐसा करने के लिए हमारे पास कोई वैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं है | 
     जलवायु परिवर्तन या महामारी के स्वरूप परिवर्तन जैसी घटनाएँ यदि मौसम संबंधी या महामारी संबंधी पूर्वानुमानों के गलत निकल जाने के लिए यदि जिम्मेदार हैं भी तो उनके विषय में अच्छी प्रकार से अनुसंधान कर लेने के बाद भविष्यवाणियाँ  की जानी चाहिए थीं | वैज्ञानिक अनुसंधान होते ही इसीलिए हैं | ऐसी समस्याओं के रहस्य उद्घाटन की चुनौती स्वीकार की जानी चाहिए थी |
    जिस प्रकार से किसी आपराधिक घटना के लिए आरोपित अपराधी पकड़े जाने के भय से स्थान परिवर्तन स्वरूप परिवर्तन या पहचानपरिवर्तन करके छिपने का प्रयास करता है |वो ऐसा करेगा ये अधिकारियों को भी पता होता है इसीलिए वे शुरू से ही ऐसी संभावना मानकर उस प्रकार की तैयारी करके चलते हैं | यही  विशेषज्ञता उन अधिकारियों को आम जनता से अलग बनाती है|यह जिम्मेदारी उन्हें सौंपी ही इसीलिए जाती है कि वे हर परिस्थिति से निपटने में सक्षम हैं |यदि वे अपराधी को न पकड़ पावें और इसका कारण  अपराधी के स्थानपरिवर्तन, स्वरूपपरिवर्तन या पहचानपरिवर्तन आदि को बताकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहें तो क्या समाज या शासन प्रशासन इसे स्वीकार करके  चुप बैठ जाएगा |
        विशेष बात यह है कि जिन  विज्ञान विषयक अनुसंधानों के द्वारा उनसे संबंधित घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव नहीं हो पा रहा है | उसी विषय का विज्ञान के रूप में पठन पाठन किया जाना कितना उचित है | उस विषय वेत्ताओं की वैज्ञानिकों के रूप में पद-प्रतिष्ठा कितनी तर्कसंगत है |इस विषय में सोचे जाने की आवश्यकता है | 
    भूकंप वैज्ञानिकों को यदि भूकंपों के विषय में तथा मौसम वैज्ञानिकों को मौसम के विषय में एवं महामारी वैज्ञानिकों को महामारी के विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि पता न हों या अपने अपने विषयों से संबंधित मदद की आवश्यकता  पड़ने पर वे असमर्थता व्यक्त कर दे रहे हों तो ऐसी अवैज्ञानिक बेचारगी का निरर्थक भारवहन आखिर कब तक किया जाएगा | उचित होगा कि ऐसे प्राकृतिक क्षेत्रों में वर्तमान विषय के साथ साथ विभिन्न वैज्ञानिक विकल्पों पर भी बिचार किया जाना चाहिए |

   
         
                                            वैज्ञानिक अनुसंधानों की सीमाऍं
     महामारी भूकंप बाढ़ बज्रपात आँधीतूफ़ान एवं मौसम जैसी घटनाओं के विषय में जो अनुसंधान किए जाते हैं |उनके द्वारा  ऐसी घटनाओं को घटित होने से रोकना संभव नहीं है | इसलिए ऐसी घटनाओं से  बचाव ही किया जा सकता है | इतनी बड़ी बड़ी घटनाओं से बचाव करने के लिए भी कोई न कोई सशक्त वैज्ञानिक  प्रक्रिया तो चाहिए ही , इसके साथ ही साथ उस प्रक्रिया को करने के लिए साधन एवं समय दोनों की आवश्यकता है |  
     इसके लिए किसी ऐसे विज्ञान की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा महामारी भूकंप बाढ़ बज्रपात आँधीतूफ़ान एवं मौसमी घटनाओं को अच्छी प्रकार से समझा जा सके एवं उसके विषय में सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाया जा सके,ताकि संभावित घटना से बचाव हेतु आवश्यक प्रक्रिया करने हेतु कुछ समय मिल सके | ऐसा करने योग्य यदि विज्ञान है तब तो ठीक है और यदि नहीं है तो ऐसे विज्ञान की भी खोज करनी होगी !
     विज्ञान का क्षेत्र असीमित है उसके लिए अनंत अनुभवों की आवश्यकता होती है न जाने कब कौन अनुभव कहाँ काम आ जाए !जिस क्षेत्र से संबंधित वैज्ञानिक अनुभवों का संग्रह जितना कमजोर होगा उस क्षेत्र से संबंधित अनुसंधानों में असफलता मिलने की संभावनाएँ उतनी अधिक रहती हैं | 
     महामारी संबंधी अनुसंधानों को ही देखा जाए तो वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी के विषय में जो अनुसंधान किए गए हैं | उनके द्वारा वैज्ञानिकों को जो अनुभव हुए  उसके आधार पर महामारी के विषय में वैज्ञानिकों ने समय समय पर जो भी अनुमान पूर्वानुमान आदि बताए हैं |उनमें से अधिकाँश सही नहीं निकले हैं कुछ यदि सही निकल भी गए हों तो इतना आम लोगों के द्वारा लगाया गया अंदाजा भी सही निकल जाता है |इसलिए इसमें वैज्ञानिक अनुभवों की तरह दृढ़ता नहीं लाई जा सकती है जिसके आधार पर बचाव के लिए कोई उपाय किया जा सकता हो !
 ध्यान देने योग्य बातें -
  • "प्राचीन काल में महामारियों के आने पर जो नुक्सान हुआ करता था, कोरोना महामारी के समय वैज्ञानिक अनुसंधानों की मदद से उस नुक्सान को क्या कुछ कम किया जा सका है ? "
  • कोरोना महामारी से हृदयरोगियों को कितना खतरा है? इस विषय में वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा क्या कोई सही अनुमान लगाया जा सका  है ?
  • किस उम्र विशेष के लोग कोरोना महामारी से अधिक पीड़ित हो सकते हैं ? वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा इसका कोई स्पष्ट उत्तर खोजा जा सका है क्या ? 
  • कोरोना महामारी प्राकृतिक है या मनुष्यकृत ?इसके पैदा होने का स्पष्ट कारण जाने बिना इससे बचाव के लिए किसी औषधि का निर्माण कैसे महामारी यदि प्राकृतिक है तो इन्हीं कुछ वर्षों में शुरू होने के लिए ऐसा जिम्मेदार कारण क्या है जो प्राकृतिक दृष्टि से इन्हीं वर्षों में घटित हुआ ,पहले नहीं घटित हुआ है  ?
  • महामारी जनित संक्रमण बढ़ने का कारण महामारी की संक्रामकता थी या महामारी से निपटने की तैयारियों का अभाव ?
  • महामारीजनित  संक्रमण  बार बार बढ़ने और घटने के लिए कोई मनुष्यकृत कारण जिम्मेदार है या प्राकृतिक ? और वो कारण क्या है ? जिसका पता लगाए बिना लहरों को रोका नहीं जा सकता है !
  • महामारी समाप्त कब होगी ? स्वयं समाप्त होगी या मनुष्यकृत प्रयास से ?
  • क्या महामारी के विषय में पूर्वानुमान लगाना संभव है ,यदि हाँ तो इतनी बड़ी महामारी आने के विषय में पहले से कोई पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाया जा सका ? यदि नहीं तो पूर्वानुमान बताने के नाम पर वैज्ञानिकों के द्वारा तारीखें क्यों बताई जाती रही हैं ?
           महामारी संक्रमण  पर मौसम के प्रभाव के विषय में क्या कहते हैं वैज्ञानिक अनुसंधान !
  • महामारीजनित संक्रमण बढ़ने घटने  पर तापमान बढ़ने घटने का  प्रभाव पड़ता है या  नहीं ?
  • वर्षा  का  प्रभाव कोरोना महामारी पर भी  पड़ता है क्या ?  किसी को पता नहीं है !
  • इन वर्षों में मौसम में ऐसे कौन से बड़े बदलाव देखे गए जो कोरोना महामारी के जन्म का कारण बने ?
  • महामारी के जन्म का कारण यदि मौसम संबंधी घटनाएँ होंगी भी तो मौसम को समझने का ही यदि कोई मजबूत वैज्ञानिक आधार नहीं है तो मौसम के आधार पर  महामारी के विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान आदि कैसे लगाया जा सकेगा ?
  • मौसम वैज्ञानिक यदि अभीतक मानसून आने और जाने की सही तारीखों का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते हैं ,प्राकृतिक आपदाओं के विषय में पूर्वानुमान नहीं  लगा सकते हैं,कृषि के लिए आवश्यक मौसम संबंधी दीर्घावधिमौसम पूर्वानुमान नहीं लगा सकते हैं तो वे महामारी संबंधी अनुसंधानों में मौसम की दृष्टि से सहायक कैसे हो सकते हैं ? 
     कोरोनासंक्रमण पर वायुप्रदूषण का प्रभाव पड़ता है या नहीं ?
  • वायुप्रदूषण के  प्रभाव से महामारीजनित संक्रमण बढ़ सकता है क्या ?
  • महानगरों की मलिन बस्तियों में प्रदूषण अधिक होने पर भी लोगों के अधिक स्वस्थ रहने का कारण क्या था ? 
  • अक्टूबर नवंबर 2020 में वायुप्रदूषण के बहुत बढ़ने पर भी कोरोना संक्रमितों की संख्या दिनोंदिन कम होते जाने का कारण क्या था ? 
  • मार्च अप्रैल 2021 में वायुप्रदूषण मुक्त वातावरण होने पर भी अत्यंत हिंसक दूसरी लहर आने के लिए जिम्मेदार कारण वायुप्रदूषण नहीं तो दूसरा और क्या था ?
  • महामारी के पैदा होने का कारण यदि वायु प्रदूषण हो भी तो उसका पता लगाने के लिए वायु प्रदूषण बढ़ने का निश्चित कारण एवं अनुमान पूर्वानुमान आदि कैसे पता लगेगा ?उसके बिना वायु प्रदूषण जनित महामारी पैदा होने एवं संक्रमण बढ़ने के विषय में कोई अनुमान पूर्वानुमान आदि कैसे लगाया जा सकता है ?    
इन प्रश्नों के उत्तर कौन देगा ?
  • कोरोनाकाल में हुई लोगों की मौतों का कारण महामारी ही थी या लोगों की अचानक मौतें होते देखकर उसे महामारी मान लिया गया ? सच क्या है ?
  • कोरोनामहामारी से इतनी अधिक जनधन हानि होने का कारण महामारी की भयंकरता रही या वैज्ञानिक अनुसंधानों का अभाव ? 
  • महामारी को ठीक ठीक समझे बिना बचाव के लिए उचित उपाय और प्रभावी औषधियों को तैयार किया जाना कैसे संभव था ?
  • वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए अनुमान पूर्वानुमान आदि  सही न निकलने कारण क्या रहा है? महामारी को समझने लायक कोई वैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं है या फिर गलती महामारी की जिसने अचानक अपना स्वरूप बदलना शुरू कर दिया ?
  • महामारी का प्रारंभिक उद्भव प्राकृतिक वातावरण में हुआ था या मानव शरीरों में ? 
  • महामारीजनित संक्रमण  का प्रवेश फलों के अंदर संभव था या नहीं ? 
               छूने से कोरोना फैल सकता है या  नहीं ? 
  • यदि संक्रमितों को छूने से ही कोरोना फैलता था तो सबसे पहले संक्रमित हुए व्यक्ति के संक्रमित होने का कारण क्या था ?
  • कोरोना काल में मुंबई सूरत आदि से पलायित श्रमिकों में कोरोना क्यों नहीं फैला ?बिहार बंगाल की चुनावी रैलियों से वहाँ लोग कोरोना संक्रमण  क्यों नहीं बढ़ा ?
  • हरिद्वार के कुंभ की भीड़ में कोरोना क्यों नहीं बढ़ा ?
  • दिल्ली में आंदोलनरत किसानों में कोरोना क्यों नहीं बढ़ा ?
  • शहरों की फैक्ट्रियों में अधिसंख्य लोग एक साथ सोते जागते खाते पीते रहे उनमें कोरोना क्यों नहीं बढ़ा ?
  •  कुछ परिवारों में एक सदस्य कोरोना संक्रमित हुआ उसी के साथ रहने वाले बाकी लोग संक्रमित नहीं हुए     क्यों ?
  • प्रसूता को या उसके घर के सदस्यों को कभी कोरोना हुआ ही नहीं किंतु जो बच्चा पैदा हुआ  वह कोरोना संक्रमित निकला ! ऐसा  क्यों ?
  • यदि पशुओं को भी संक्रमित होते देखा जा रहा था तो पशुओं का दूध भी संक्रमित रहा होगा क्या ?
  • फलों सब्जियों आदि खाद्य पदार्थों के अंदर कोरोना संक्रमण का प्रवेश संभव था या नहीं ?
  • हवा में कोरोना संक्रमण की उपस्थिति थी या नहीं ?
  • जल में कोरोनासंक्रमण  की उपस्थिति थी या नहीं ?
कोविड नियमों के पालन का प्रभाव कितना पड़ा ?
  •   कुछ साधन संपन्न लोग कोरोना प्रारंभ होते ही  एकांतबास करने लग गए  थे, वे घर से निकले ही नहीं और न ही किसी को कभी छुआ !ऐसे लोग भी कोरोना से संक्रमित हुए ! उनके संक्रमित होने का कारण क्या था ?
  • गरीबों के छोटे छोटे बच्चे महानगरों में दिन दिन भर भोजन की लाइनों में लगे रहे  एवं महानगरों से जो मजदूर पलायित हुए !कोविड नियमों के पालन न कर सकने पर भी  ऐसे लोगों के संक्रमित न होने का कारण क्या रहा है ? 
प्रतिरोधक क्षमता की कमी से लोग संक्रमित हुए हैं क्या ? 
  • महामारी की संक्रामकता बढ़ने के कारण लोग संक्रमित हुए या फिर प्रतिरोधक क्षमता की कमी से ?
  • साधन बिहीन गरीबों और मजदूरों एवं अन्य अभावग्रस्त लोगों के कम संक्रमित होने का कारण यदि उनकी प्रतिरोधक क्षमता है तो साधन संपन्न लोगों में उस प्रकार की प्रतिरोधक क्षमता की कमी क्यों रही है,जबकि उनका रहन सहन खानपान आदि सबकुछ स्वास्थ्य के अनुकूल चिकित्सकों की देखरेख में होता है !
  • महामारी संक्रमितों पर चिकित्सा का प्रभाव !
       संक्रमितों की  चिकित्सा की दृष्टि से जिन देशों को अधिक सक्षम माना जाता है है एवं भारत के जिन प्रदेशों को चिकित्सा में अधिक सक्षम माना जाता है ! उन्हीं देशों प्रदेशों में संक्रमितों की संख्या अधिक बढ़ने का कारण क्या रहा है ?
     प्लाज्माथैरेपी का संक्रमितों पर प्रभाव !
     जिस प्लाज्माथैरेपी को कोरोना काल में  लाभप्रद समझकर पहले आवश्यक बताया गया उसी को बाद में बंद करने का निर्णय लेना पड़ा !क्यों ?      
लॉकडाउन के प्रभाव का परीक्षण ! 
     हमारी समझ में लॉकडाउन लगाना इसलिए उचित समझा गया ताकि लोग एक दूसरे को छूकर एक दूसरे से संक्रमित न हों ! दुनियाँ के अधिकाँश देश लॉकडाउन का उपयोग चिकित्सा की तरह करते रहे हैं | जैसे ही कोरोना बढ़ते दिखा तो लॉकडाउन लगा दिया जाता रहा है |दूसरी ओर स्वीडन, दक्षिणकोरिया, तुर्कमेनिस्तान एवं तजाकिस्तान जैसे  देशों ने लॉकडाउन का सहारा नहीं लिया बैंक, विद्यालय,बाजार आदि सब चलते रहे !अन्य देशों की अपेक्षा  कोरोना से इनका नुक्सान कितना अधिक हुआ ?  इसका आकलन करने पर यदि पता लगता है कि कोई विशेष अंतर नहीं रहा तो लॉकडाउन से व्यापार शिक्षा आदि जो क्षेत्र विशेष अधिक प्रभावित हुए हैं इसके लिए अनुसंधानों को कितना जिम्मेदार माना जाए ?
 

 महामारी के घटने बढ़ने के विषय में पूर्वानुमान लगाने के विज्ञान कितना प्रभावी ? 
     वैज्ञानिकों के द्वारा महामारी के विषय में जो अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाए जाते रहे हैं वे गलत निकलते रहे !इसका कारण पूर्वानुमान लगाने की प्रक्रिया में दूर दूर तक कहीं वैज्ञानिकता के दर्शन नहीं हुए हैं ! पूर्वानुमानों के नाम पर एक एक लहर के विषय में दस दस बीस बीस वैज्ञानिकों के द्वारा दस बीस तरह की आशंकाएँ संभावनाएँ आदि व्यक्त कर दी जाती रही हैं !उनमें से कोई सही निकली तो ठीक और गलत निकलती दिखी तो उसी विषय में कुछ दूसरी भविष्यवाणी कर दी जाती रही | वह भी गलत निकल गई तो कोई तीसरी भविष्यवाणी कर दी जाती रही  है | कई बार वे सभी भविष्यवाणियाँ गलत निकल जाती रही हैं| इसके बाद महामारी संबंधित भविष्य वक्ता वैज्ञानिक घटनाओं के पीछे पीछे चलते दिखाई देते हैं अर्थात घटनाएँ जैसे  जैसे  मुड़ती रहती हैं उसी से मिलते जुलते अनुमान पूर्वानुमान आदि वैज्ञानिक भी व्यक्त करते रहते हैं | ऐसा करते रहने से अभिलषित उद्देश्य की पूर्ति होना संभव नहीं है | 
      महामारियाँ या प्राकृतिक घटनाएँ  यद्यपि अपने अपने पूर्व निर्धारित समय से घटित होती हैं किंतु पूर्वानुमान पता न होने के कारण ऐसा भ्रम होता है कि ऐसी घटनाएँ अचानक घटित हो रही हैं | अचानक आ जाने के कारण सँभलने का समय नहीं मिलता है, तुरंत से भारी मात्रा में लोग संक्रमित होने एवं मरने लगते हैं !महामारियों को समझने के लिए जब तक कुछ प्रयत्न किए जाते हैं तब तक जनधन की बहुत बड़ी हानि हो चुकी होती है फिर भी महामारी के स्वभाव को समझना संभव नहीं हो पाता है |इसीलिए महामारियों के आने के विषय में पूर्वानुमान लगाना सबसे पहले आवश्यक समझा जाता है | इसके लिए वैज्ञानिकों के द्वारा अनुसंधान किए जाते हैं !जिनसे निकल कुछ नहीं पाता है केवल अपने पूर्वानुमानों को घटनाओं के साथ फिट करने का प्रयास होता रहता है |
    कुल मिलाकर पूर्वानुमानों से समाज को लाभ तभी पहुँच सकता है जब महामारी शुरू होने से पहले इसके विषय में पूर्वानुमान लगाया जाना संभव होता कि महामारी आने वाली है | उस पूर्वानुमान के आधार उसीप्रकार के आहार बिहार पथ्य भोजन रहन सहन आदि को अपनाने की सलाह देकर मनुष्य शरीरों में इसप्रकार की प्रतिरोधक क्षमता पहले ही तैयार कर ली जाती जो  महामारी से बचाव करने में सहायक होती !
     इससे लोग कम से कम संक्रमित होते  जो हो भी जाते उनके लिए उस प्रकार की औषधियाँ तैयार करने का समय मिल जाता !जो ऐसे रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम होतीं |ऐसे सभी प्रयत्नों से समाज का बहुत बड़ा वर्ग महामारी मुक्त बना रहता और जो संक्रमित हो भी जाता है | उसके बचाव के लिए आवश्यक चिकित्सकीय प्रयत्न  किए जाने योग्य समय एवं संसाधन आसानी से सुलभ  हो जाते हैं |  इन सबसे  संभव है महामारी में इतना बड़ा नुक्सान होने से बच जाता !
     दुर्भाग्य से अभी तक महामारी एवं उसकी लहरों के विषय में कोई भी अनुमान  पूर्वानुमान आदि लगाना संभव नहीं हो सका है | इसके बिना चिकित्सकीय प्रयोगों से कोई लाभ मिल पाना संभव भी नहीं है |रोग को 
 

 
पहली लहर  के विषय में कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सका,दूसरी और तीसरी लहर के विषय में कोई  सही पूर्वानुमान लगाए गए उनमें बहुत कम सही निकले ! 
 
 
 
 
 

  1. मई 2020 से अगस्त 2020 के बीच महामारी का वेग दिनोंदिन कम होता जा रहा था ,आम लोग बिना चिकित्सा के ही अपने आपसे स्वस्थ होते जा रहे थे !इसी काल खंड के बीच में विभिन्न देशों ने वैक्सीन ट्रायल सफल होने की घोषणा की थी | ऐसे समय में ट्रायल में सम्मिलित और न सम्मिलित दोनों ही प्रकार के लोग अपने आप से स्वस्थ होते जा रहे थे | ऐसे समय वैक्सीन ट्रायल में सम्मिलित लोगों के स्वस्थ होने के लिए वैक्सीन ट्रायल को सफल माने जाने के लिए जिम्मेदार वैज्ञानिक तर्क क्या हो सकते हैं ?

2 .जिसप्रकार से वैक्सीन लगने से पहले महामारी संक्रमितों की संख्या बढ़ती घटती रही उसीप्रकार से वैक्सीन लगने  के बाद भी संक्रमितों की संख्या बढ़ती घटती रही | ऐसे में  वैक्सीन के  प्रभाव का परीक्षण कैसे होगा ?

 3 . कुछ  देशों में वैक्सीन लगने के बाद भी कोरोना संक्रमण अधिक मात्रा में बढ़ता रहा है | इसलिए उन देशों की वैक्सीन को कम प्रभाव वाली या निष्प्रभावी कहा जा रहा है या फिर इसके पीछे कोई वैज्ञानिकअनुसंधान जनित कोई ऐसा वैज्ञानिक आधार भी है | 

 

 

 

 

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  •  "वैज्ञानिक अनुसंधान शुरू किए जाने से पहले भूकंप अचानक आ जाने से भारी भरकम नुक्सान हो जाया करता था ! वैज्ञानिक अनुसंधानों की मदद से क्या उस जनधन हानि को कम किया जाना संभव हो सका है | "
  • "वैज्ञानिक अनुसंधान शुरू किए जाने से पहले "बाढ़, बज्रपात, एवं आँधी तूफ़ान जैसी घटनाएँ अचानक घटित होने लगती थीं उनमें जनधन की हानि अत्यधिक मात्रा में हो जाया करती थी ! वैज्ञानिक अनुसंधानों की मदद  से क्या ऐसे नुकसानों से समाज को बचाया जा सका है |"
  • "कृषि के लिए आवश्यक मानसून आने और जाने के विषय में निश्चित पूर्वानुमान किसान जानना चाहते हैं ! उसके विषय में वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा क्या सही सही पूर्वानुमान लगाया जाना क्या संभव हो गया है ! पिछले कुछ दशकों में वैज्ञानिकों के द्वारा जो बताया जाता रहा है वह कितने प्रतिशत सही निकलता रहा है |
  • "वर्षा होने न होने कम या अधिक होने तथा सूखा बाढ़ आदि के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि पता लगाना विशेषकर कृषि कार्यों के लिए विशेष आवश्यक माना जाता रहा है | वर्षा के विषय में ऐसे सही अनुमान पूर्वानुमान आदि वैज्ञानिकों के द्वारा क्या पता लगा लिए जाने लगे हैं ?
  •  वायुप्रदूषण बढ़ना कब से प्रारंभ हुआ ,इसके बढ़ने का कारण क्या है ?वायु प्रदूषण बढ़ने और कम  होने के विषय में क्या सही सही अनुमान पूर्वानुमान  आदि लगाने में सफलता हासिल की जा सकी है ?                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         
 

 
 
दी जाने वाली धनराशि जनता के खून पसीने की परं पवित्र कमाई का बहुमूल्य अंश होता है जिसे परिणामपूर्ण कार्यों पर ही खर्च किया जाना चाहिए | जिन कार्यों को करने की  योजना बनती है वो कार्य किए जाते हैं उन पर धनराशि भी खर्च की जाती है किंतु उनसे परिणाम नहीं निकलते !ऐसे अनुसंधानों का जनहित में उपयोग ही क्या है और उनसे भविष्य के लिए क्या आशा की जा सकती है |
 
रहा है या ऐसा करके खतरनाक होता जा रहा है| किसी भी अपराधी के  विषय  में ऐसे सभी परिवर्तन संभावित होते हैं | इसीलिए अपराधियों को पकड़ने की जिम्मेदारी शासन प्रशासन के उन्हीं विशेषज्ञ लोगों को सौंपी जाती है जो कितने भी परिवर्तन कर लेने पर भी अपराधी को पकड़ते ही हैं | यही उनकी विशेषज्ञता है | इसीलिए तो अपराधियों को पकड़ने के मामले में वे समाज के अन्यलोगों की अपेक्षा विशेष होते हैं | उनकी इसी योग्यता करण तो उन्हें ऐसी जिम्मेदारी सौंपी जाती है |     
     ऐसी समस्याएँ प्रायः सभी क्षेत्रों में आती हैं जिनका समाधान निकालना आम लोगों के लिए आसान बेशक न होता हो किंतु उस  क्षेत्र के विशेष वैज्ञानिक तो का समाधान निकालते ही हैं |परिस्थितियाँ तो हर क्षेत्र में बनती बिगड़ती या बदलती रहती हैं किसी समस्या का समाधान निकालने के लिए जो सोचकर या देखकर शुरुआत की जाती है परिस्थितियाँ अंत तक वैसी ही नहीं रहती हैं उनमें बदलाव आते हैं |ऐसा हर क्षेत्र में होता है किंतु समस्याओं के स्वरूप परिवर्तन  की बात बोलकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाने का विकल्प तो कहीं नहीं होता  है | 
     ये प्रक्रिया केवल विभिन्न समस्याओं और समाधानों तक ही सीमित नहीं है अपितु सभी कार्यों में ऐसा ही होते देखा जाता है |यहाँ तक कि वैज्ञानिक अनुसंधानों में  भी इस प्रकार के स्वरूप परिवर्तनों का सामना बार बार करना पड़ता है |इसके बाद भी उन परिवर्तनों का समय क्रम गति शैली स्वभाव आदि को समझने  के लिए प्रयत्न किया जाता है | यही समझने  के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान किए जाते हैं | उन्हीं अनुसंधानों आधार पर ही विशेषज्ञवैज्ञानिकों को उन उन क्षेत्रों में लक्ष्य हासिल करते देखा जाता है | विभिन्न क्षेत्रों में हुए वैज्ञानिक अनुसंधानों की उपलब्धियाँ  इस बात की सजीव प्रमाण हैं |     
     सभी क्षेत्रों  की तरह ही मौसम और महामारी जैसे क्षेत्रों में भी वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं के द्वारा यही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए |जिसमें लक्ष्य हासिल करने का  निश्चय करके ही अनुसंधान शुरू किए जाने की आवश्यकता है ताकि कितना भी जलवायु परिवर्तन  हो किंतु वैज्ञानिकों के द्वारा लगाए गए मौसमसंबंधी अनुमान पूर्वानुमान आदि सही लगाने का लक्ष्य हासिल किया ही जाना चाहिए | इसके बिना दुविधायुक्त मौसम संबंधी अनुसंधानों से लक्ष्य हासिल होना संभव ही नहीं है |किसी भी क्षेत्र में  लक्ष्यभ्रष्ट अनुसंधानों को किए जाने की आवश्यकता या उपयोगिता ही क्या  है | 
    महामारी संबंधी अनुसंधानों में भी यही प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए और महामारी  संबंधी वैज्ञानिक  अनुसंधानों के द्वारा महामारीविषयक स्वरूप परिवर्तन की चुनौती को स्वीकार किया  जाना चाहिए | इसके बिना महामारी संबंधी अनुसंधानों की उपयोगिता ही क्या बचती है | 
     जिस प्रकार  अपराध के क्षेत्र में अपराधी को  प्रयत्न पूर्वक खोजकर उस रहस्य को उद्घाटित करना ही होता है केवल यह  कह देने से बात नहीं बन जाती है कि अपराधी अपनी वेष भूषा स्थान पहचान आदि बदलकर खतरनाक होता जा रहा है फिर मौसम एवं कोरोना महामारी जैसे क्षेत्रों में जलवायुपरिवर्तन  एवं  महामारी के  स्वरूप परिवर्तन को क्यों जिम्मेदार ठहराया जा रहा होता है  | 
     महामारी के सामने कितनी बेबश सिद्ध हुई स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली !                                                  
     किसी क्षेत्र से संबंधित अपराध हो या गलती छूटे या जिम्मेदारी का ठीक  से निर्वहन न हो  सके तो इसकी पहले जाँच करके दोष और दोषी खोजे जाते हैं उसके बाद उन्हें दंडित करना होता है| इस संपूर्ण प्रक्रिया में कार्य अवरुद्ध तो होता ही है इसके साथ ही साथ समय तथा धन की बहुत बर्बादी होती है |  
    जिसप्रकार से सैनिकगण  हमलों या घुसपैठों के घटित होने का इंतजार नहीं करते हैं !ऐसी घटनाएँ घटित हों या न घटित हों  हर परिस्थिति में सैनिकों का पहरा हमेंशा इतना कड़ा रहता है कि ऐसी अप्रिय घटनाएँ घटित होना बहुत कम ही संभव हो पाता है |  
     सेना की तरह ही जिन क्षेत्रों में गलती छूटने या किसी अपराध के होने का इंतजार नहीं किया जाता है |  अपितु गलती होने ही न पाए इस बात अधिक बल दिया जाता है | ऐसे क्षेत्रों में कोई भी कार्य करने के लिए जिसे जो जिम्मेदारी सौंपी जाती है उसका पहले ही लक्ष्य निर्धारित कर दिया जाता है जिसे पूरा करना ही होता है | यदि ऐसा नहीं होता है तो कार्य न होने के लिए उस जिम्मेदार व्यक्ति को कोई जिम्मेदार जवाब देना पड़ता है | 
     इसप्रकार के भय से उसकार्य की गुणवत्ता में  बढ़ोत्तरी होती है |प्रत्येक व्यक्ति अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने के लिए विशेष सतर्क एवं समर्पित होता है|ऐसे जिम्मेदार प्रयत्नों से प्रभावित होकर ही समाज शिक्षा,चिकित्सा एवं दूरसंचार जैसे विभिन्न निजी क्षेत्रों से जुड़ी आवश्यक सेवाओं को अधिक प्राथमिकता देता है !निजी क्षेत्र में किसी भी कार्य के करने के लिए किसी न किसी की तो जवाबदेही होती ही  है | जवाबदेही के बिना या तो कार्य होता नहीं है और यदि होता भी है तो अच्छा नहीं होता है अर्थात उसकी गुणवत्ता में कमी होती ही है |  
    कोरोनामहामारी के विषय में ही यदि देखा जाए तो ऐसे रोगों महारोगों से संबंधित अनुसंधान प्रायः हमेंशा चलाए जाते हैं |ऐसा करने का उद्देश्य यही होता है कि जब ऐसे अनुसंधानों की आवश्यकता पड़े तब ये काम आवें ! कोरोना महामारी  के समय जब ऐसे  अनुसंधानों से  प्राप्त अनुभवों की आवश्यकता पड़ी तब उनसे कोई  विशेष मदद नहीं मिल सकी | ऐसा क्यों हुआ इसकी किसी की जवाबदेही भी नहीं दिखी !
    इसीप्रकार से कोरोनाकाल में विभिन्न वैज्ञानिकों ने महामारी होने न होने एवं इसके घटने बढ़ने के लिए मौसम को जिम्मेदार बताया था किंतु लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व भारतीय मौसमविज्ञान विभाग की स्थापना  हुई थी |उसके तत्वावधान में मौसमसंबंधी घटनाओं के विषय में अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाने के लिए अनुसंधान होते रहे हैं किंतु उन अनुसंधानों के द्वारा  यदि  अभीतक मौसमसंबंधी घटनाओं के विषय में ही सही सही अनुमान पूर्वानुमान आदि लगाना संभव नहीं सका है तो ऐसे मौसम संबंधी अनुसंधान महामारी को समझने में कोई मदद कैसे कर सकते हैं |  
     मौसमसंबंधी अनुसंधानों  के द्वारा यदि मौसम को ही नहीं समझा जा  सका है तो ऐसा न कर पाने के लिए मौसम संबंधी अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक लोग ही जिम्मेदार हैं किंतु उन्होंने इसके लिए जलवायुपरिवर्तन   अर्थात मौसम को ही जिम्मेदार ठहरा दिया है |ऐसे ही महामारी संबंधी अनुसंधानों  के द्वारा यदि महामारी को नहीं समझा जा  सका है तो इसके लिए महामारी स्वरूप परिवर्तन अर्थात महामारी को ही जिम्मेदार ठहरा दिया गया है |इससे जिनकी जवाबदेही बनती है उनका बचाव हो जाता है और ऐसी घटनाओं के विषय में अनुसंधानपूर्वक कुछ  लगाना संभव नहीं  पाता है | 
      इसप्रकार के अनुसंधान यदि सेना की शैली में किए जाते तो ऐसी जिम्मेदारी सँभालने वाले वैज्ञानिकों को अपना लक्ष्य लेकर ही लौटना  होता !वे मौसम एवं महामारी के विषय में अपने अनुसंधानों के द्वारा सही सही कारण अनुमान पूर्वानुमान आदि पता लगाते या फिर जवाब देते कि ऐसा किया जाना मेरे बश का नहीं है या फिर  स्पष्ट रूप से कहते कि मौसम एवं महामारी के  प्राकृतिक स्वभाव  समझने  के लिए हमारे पास कोई विज्ञान ही नहीं है | 
    प्राकृतिक आपदाएँ एवं  महामारी जैसी इतनी भयानक हिंसक घटनाएँ यदि अचानक ही घटित होनी हैं उनके विषय में वैज्ञानिकों को भी आम जनता  के साथ ही यदि घटनाओं के घटित होने के विषय में पता लगना है और उनसे जनधन हानि होनी ही है तो ऐसे अनुसंधानों की जनहित में उपयोगिता आखिर क्या रह जाती है |
                                                                  

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