फ़िल्मविज्ञान !

                                               फ़िल्मविज्ञान एवं ग्रंथलेखन !

         फ़िल्म विज्ञान में जिन घटनाओं को दर्शाने के लिए जैसे पात्रों का चयन किया जाता है उसमें पात्रों की भूमिका के अनुसार शरीरों की बनावट चयन करनी होती है पात्रों की भूमिका के अनुशार  ही पात्रों के नाम या नाम के पर्यायवाची शब्द रखने होते हैं । घटनाओं के स्वभाव के अनुसार ही घटनाएँ घटने के लिए स्थान का चुनाव किया जाता है घटनाओं के अनुरूप ही समय का चुनाव करना होता है ।
        घटनाओं में सम्मिलित लोगों का नाम तो कोई एक एक ही रखा जा सकता है किंतु घटनाओं के अंदर कुछ घटनाएँ घटती रहती हैं उसमें घटना के परिवर्तित रूप के अनुशार कुछ पुराने पात्र छूटते एवं नए पात्र जुड़ते हैं उनके आपसी व्यवहार के अनुरूप नाम रखने से उस घटना में और सजीवता आती है ऐसी  परिस्थिति में अन्तर्घटनाओं के अनुरूप नामों में परिवर्तन तो नहीं किया जा सकता किंतु ऐसे स्थलों पर नाम के पर्याय वाची शब्दों का प्रयोग पूर्वकाल में किया जाता था ।रामचरितमानस आदि ग्रंथ इसी विधा से लिखे गए और अत्यन्त लोकप्रिय भी हुए ।कुछ लोग सोचते हैं कि कविता बनाने के लिए आवश्यकतानुशार वर्ण एवं मात्राओं को घटाने बढ़ाने के लिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है कारण वो भी हो सकता है किंतु नाम के प्रथम अक्षर के व्यवहार को ध्यान में रखते हुए भी ऐसा किया जाता है ।
        किसी भी फ़िल्म नाटक या ग्रन्थ में सारी  भूमिका नायक - नायिका तथा खलनायक और खलनायिका के आस पास घूमती है ।शरीरों की दृष्टि से जितने उत्तम लक्षण होते हैं अर्थात उत्तम लक्षणों से युक्त शरीरों बोली भाषा वाले स्त्री पुरुषों को नायक नायिका बनाया जाता है और उत्तम कोटि के खल नायक और खलनायिकाओं में सजीवता भरने के लिए उनके उठने बैठने बोलने चालने तथा चलने फिरने में बक्रता होने से सजीवता आती है । जैसे रामायण में मंथरा केवल कूबरी ही नहीं थी उसके मुख की भाव भंगिमाएँ भी बक्र थीं इसी प्रकार से शकुनि का लँगड़ाकर चलना के एवं उसके भी मुख की बक्र भाव भंगिमाएँ संपूर्ण दृश्य में सजीवता ले आती हैं ।
      ऐसी सभी बातों के कहने का मेरा उद्देश्य यह है कि मेरी जानकारी के अनुशार प्रायः ऐसी सभी चीजों के चयन के लिए अनुमान एवं तीर तुक्कों आधार पर सारे चयन होते हैं किंतु फ़िल्मनिर्माण या ग्रंथ लेखन से संबंधित ऐसे सभी प्रकार निश्चित होते हैं वहाँ तीर तुक्कों की कोई आवश्यकता ही नहीं होती है पात्रों के चयन से लेकर किसी भी प्रकार की दुविधा उपस्थित होने पर फ़िल्म विज्ञान का सहयोग लिया जा सकता है ।
     जैसे किसी खेत की मिट्टी का परीक्षण किए बिना तीर तुक्के जो जो उर्वरक खेतों में डाले जाते हैं उनका चयन यदि ठीक हो पाया तब तो ठीक है किंतु यदि अनुमान ठीक से नहीं लगाए जा सके तो फसल तो चौपट होती है साथ ही उर्वरक भी बेकार चले जाते हैं । उसी प्रकार से किसी भी फ़िल्म की कहानी के अनुसार सब कुछ निश्चित करने में फ़िल्म विज्ञान विभाग विशेष लाभकारी सिद्ध हो सकता है ?
        इसलिए फ़िल्मनिर्माण  एवं ग्रंथलेखन के क्षेत्र में फ़िल्म विज्ञान की दृष्टि से गहन शोध की आवश्यकता है । 
       


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